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परिशिष्ट ।
कमल को धारण करने वाली हे देवि! तू अनादिकाल के संसाररूप कैदखाने को तोड़ने वाले सारभूत मंगल को कर ॥ ४ ॥
[ श्रीपश्चिनाथ की स्तुति ।] अश्वसेन नरेसर, वामा देवी नन्द । नव कर तनु निरुपम, नील वरण सुखकन्द ।। अहिलञ्छण सेवित, पउमावइ धरणिन्द । प्रह ऊंठी प्रण, नित प्रति पास जिणन्द ॥१॥
(२) कुलगिरि वेयड्ढइ, कणयाचल अभिराम । मानुषोत्तर नन्दी, रुचक कुण्डल सुख ठाम ।। भुवणेसुर व्यन्तर, जोइस विमाणी नाम । वर्ते ते जिणवर, पूरो मुझ मन काम ॥१॥ जिहां अङ्ग इग्यारे, बार उपङ्ग छ छेद । दस पयन्ना दाख्या, मूल सूत्र चउ भेद ॥ जिन आगम षड् द्रव्य, सप्त पदारथ जुत्त । सांभलि सर्दहतां, टे करम तुरत्त ॥१॥
पउमावई देवी, पार्श्व यक्ष परतक्ष । सहु संघनां संकट, दूर करेवा दक्ष । सुमरो जिनभक्ति, सूरि कहे इकचित्त । सुख सुजस समापो, पुत्र कलत्र बहुवित्त ॥१॥
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