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________________ चैत्य-वन्दन-स्तवनादि ३५५ त्वत्तः सुदुष्प्राप्यमिदं मयाऽऽप्तं, रत्नत्रयं भूरिभवभ्रमेण । प्रमादनिद्रावशतो गतं तत्, कस्याग्रतो नायक पून्करोमि।८ । ___ भावार्थ-अत्यन्त दुर्लभ ऐसा जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र-रूप रत्न-त्रय है, उस को मैं ने अनेक जन्म में घूमते-घूमते अन्त में तेरी ही कृपा से प्राप्त किया; परन्तु वह दुर्लभ रत्न-त्रय भी प्रमाद की निद्रा में मेरे हाथ से चला गया, अब हे स्वामिन् ! किस के आगे जा कर पुकार करूँ अर्थात् अपना दुःख किसे सुनाऊँ ? ॥ ८॥ वैराग्यरङ्गः परवञ्चनाय, धर्मोपदेशो जनरजनाय । वादाय विद्याऽध्ययनं च मेऽभूत्, कियद् ब्रुवे हास्यकरं स्वमीशा९ भावार्थ-मैं ने औरों को ठगने के लिये ही वैराग्य का रङ्ग धारण किया, लोगों को खुश करने के लिये अर्थात् तद्वारा प्रतिष्ठा पाने के लिये ही र्धम का उपदेश किया और मेरा शास्त्राभ्यास भी शुष्क वाद-विवाद का ही कारण हुआ अर्थात् वैराग्य, धार्मिक-उपदेश और शास्त्र-ज्ञान जैसी महत्त्वपूर्ण उपयोगी वस्तुओं से भी मैं ने कोई तात्त्विक लाभ नहीं उठाया, हे प्रभो ! मैं अपना उपहास-जनक वृत्तान्त कितना कहूँ ? ॥९॥ परापवादेन मुखं सदोष, नेत्रं परस्त्रीजनवीक्षणेन । चेतः परापायविचिन्त नेन, कृतं भविष्यामि कथं विभोऽहम् १० भावार्थ-मैं ने परनिन्दा करके मुख को, परस्त्री की ओर दृष्टि-पात करके नेत्र को और दूसरों की बुराई चिन्तन से चित्त को दूषित किया है, हे परमेश्वर ! अब मेरी क्या दशा होगी ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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