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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि। देहरी चौरासी दीपती रे लाल, मांड्यो अष्टापद मेर, म । भले जुहायो भोयरे लाल, सुतां ऊठी सबेर, म०॥रा० ॥३॥ देश जाणीतुं देहरु रे लाल, मोटो देश मेवाड़, म० । लाख नवाणुं लगावीया रे लाल, 'धन्न'घरणे पोरवाड़,म० ० खातर वसई खांतशु रे लाल, नीग्खतां सुख थाय, म० । प्रासाद पांव बीजा वली रे लाल, जोतां पातक जाय, म० । रा०५ आज कृतारय हुँ थयो रे लाल, आज थयो आनंद, म० । यात्रा कराजिनवरतणीर लाल, दूर गयु दुःख दद, म० रा०६ संवत सोल ने छोतरे रे लाल, मागसर मास मोझार, म० । राणकपुर यात्रा करी रे लाल, 'समयसुन्दर' सुखकार, म० । रा०
[ आदीश्वरजी का स्तवन ।) जग-जीवन जगपाल हो, मरुदेवीनो नंद लाल रे। मुख दीठे सुख ऊपजे, दर्शन अति ही आनन्द लाल रे। ज०॥१॥ आंखडी अंबुज पांखडी, अष्टमी शशीसम भाल लाल रे। वदन ते शारद चंदलो, वाणी अति ही सरल लाल रे। ज०॥२॥ लक्षण औ विराजता, अडहिये हिस उदार लाल रे। रेखा कर चरणादिके,अभ्यंतर नहीं पार लाल रे।ज०॥३॥ इंद्र चंद्र रवि गिरितगा, गुग लई घड़ीयु अंग लाल रे। भाग्य किहां थकी आधीयु, अचरज एइ उनंग लाल रे ।ज०॥४॥ गुण सघला अंगे कर्मा, दूर कर्या सवी दोष लाल रे। वाचक 'जशविजये' थुण्यो, देजो सुखनो पोप लाल रे। ज०॥५॥
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