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पाक्षिक अतिचार ।
३१७ प्रवेश करते हुए 'निसिही' और बाहिर निकलते 'आवस्सही' तीन वार न कही। वस्त्र आदि उपधि की पडिलेहणा न की। पृथिवीकाय, अपकाय, तेजः काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, वसकाय का संघट्टन हुआ। संथारा पोरिसी पढ़नी भुलाई । विना संथारे जमीन पर सोया । पोरिसी में नींद ली । पारना आदि की चिन्ता की । समयसर देव-वन्दन न किया। प्रतिक्रमण न किया । पौषध देरी से लिया और जल्दी पारा । पर्वतिथि को पोसह न लिया। इत्यादि ग्यारहवें पौषधवतसंबन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते-अनजानते लगा हो, वह सब मन-वचन-काया कर मिच्छा मि दुक्कडं ।
बारहवें अतिथिसंविभागवत के पाँच अतिचारः-- "सच्चित्ते निक्खिवणे०" ॥३०॥
सचित्त वस्तु के संघट्टे वाला अकल्पनीय आहार पानी साधु साध्वी को दिया । देने की इच्छा से सदोष वस्तु को. निर्दोष कही । देने की इच्छा से पराई वस्तु को अपनी कही । न देने की इच्छा से निर्दोष वस्तु को सदोष कही। न देने की इच्छा से अपनी वस्तु को पराई कही । गोचरी के वक्त इधर उधर हो गया। गोचरी का समय टाला । बेवक्त साधु महाराज को प्रार्थना की। आये हए गुणवान् की भक्ति न की।शक्ति के होते हुए स्वामी-वात्सल्य न किया। अन्य किसी धर्मक्षेत्र को पड़ता
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