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बृहत् शान्ति ।
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को 'इच्छह चाहते हो 'ता' तो 'तेलुक्कुद्धरणे' तीन लोक का उद्धार करने वाले ऐसे 'जिणवयणे' जिन-वचन पर 'आयर' आदर 'कुणह' करो॥ ४० ॥ . . . भावार्थ-अगर तुम लोग मोक्ष की या तीन जगत् में यश फैलाने की चाह रखते हो तो समस्त विश्व का उद्धार करने वाले जिन-वचन का बहुमान करो ॥ ४० ॥
५८--बृहत् शान्ति । भो भो भव्याः शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतद्, __ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोरार्हता भक्तिभाजः । तेषां शान्तिर्भवतु भवतामर्हदादिप्रभावा-,
दारोग्यश्रीधृतिमतिकरी क्लेशविध्वंसहेतुः ॥१॥
... "१यह 'बृहत् शान्ति' वादिवेताल श्रीशान्तिसूरिकी बनाई हुई है। यह कोई स्वतन्त्र स्तोत्र नहीं है किन्तु उक्त आचार्य के ग्चे हुए 'अहद्भिषेक-विधि' नामक ग्रन्थ का शान्तिपर्व' नाम का सांतवाँ हिस्सा है । इस के सबूत में "इति शान्तिसूरिवादिवेतालीयेऽर्हद्भिषेकविधौ सप्तमं शान्तिपर्व समाप्तमिति " यह उल्लेख मिलता है।
उक्त उल्लेख, पाटण के एक भण्डार में वर्तमान 'शान्ति' की एक लिखित प्रति में है, जो सम्बत् १३५८ में उपकशगच्छीय पं० महीचन्द्र के द्वारा लिखी हुई है। '... उक्त लिखित प्रति के पाट में और प्रचलित पाट में कहीं न्यूनाधिक भी
है, जो कि यथास्थान दे दिया गया है। अर्थात् [कोष्ठक] वाला पाठ उक्त लिखित प्रति में अधिक है और रेखाङ्कित पाठ प्रचलित शान्ति में अधिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org