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अजित-शान्ति स्तवन । २७५ * तमहं जिणचंदं, अजिअं जिअमोहं ।
धुयसव्यकिलेसं, पयओ पणमामि ।।२९।। (नंदिअयं।)
अन्वयार्थ- 'अंबरंतर' आकाश के बीच 'विआरिणआहिं' विचरने वाली, 'ललिअ' ललित 'हंसवहु' हंसनी की तरह 'गामिणिआहिं' गमन करने वाली, 'पीण' पुष्ट ऐसे. 'सोणि' नितम्ब तथा 'थण' स्तनों से 'सालिणिआहि' शोमने वाली, 'सकल अखाण्डत 'कमलदल कमल-पत्रों के समान 'लोआणाहिं' लोचन वाली ऐसी, तथा-]
'पीण' पुष्ट और 'निरंतर' अन्तररहित ऐसे] 'थण स्तनों के 'भर' भार से 'विणमिअगायलआहिं नमे हुए लतारूप शरीर वाली, 'मणिकंचण' रत्न और सुवर्ण की 'पसिढिल' शिथिल 'मेहल' कर्धनी से 'सोहिअसोणितडाहिं' सुशोभित कटी तट वाली, 'वरखिखिणिनेउर' उत्तम घुघरू वाले झाँझर, 'सतिलय' सुन्दर तिलक और 'वलय' कङ्कणरूप 'विभूसणिआहिं' भूषणों को धारण करने वाली, 'रहकर' प्रीतिकारक और 'चउरमणोहर' चतुर मनुष्य के मन को हरने वाले ऐसे] 'सुंदरदसणिआहिं' सुन्दर रूप वाली (एसी, तथा-] ___'पायवंदिआहिं' किरणों के समूह वाली, [तथा] 'चिल्लएहिं' देदीप्यमान ऐसे] 'अवंग' नेत्र-प्रान्त अर्थात् उस में लगा हुआ काजल, "तिलय' तिलक तथा 'पत्तलेहनामए हिंपत्रलेखा नामक 'केहि केहिं वि' किन्हीं किन्हीं 'मंडणोड्डणप्पगारएहिं आभूषण* तमहं जिनचन्द्रमजितं जितमोहम्। धुतसर्वक्लेशं,प्रयतः प्रणमामि ॥२९॥
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