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अजित - शान्ति स्तवन ।
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पाता है, 'नव' नवीन 'सरयरवी' शरत्काल का सूर्य 'तेअगुणेहिं' तेज के गुणों में 'तं' उस को 'न पावर' नहीं पाता है, 'तिअसगणवई' देवगणों का पति 'रूवगुणेहिं' रूप के गुणों में 'तं' उस को 'न पावइ' नहीं पाता है [ और ] 'धरणिधरवई' पर्वतराज ' सारगुणोह' दृढता के गुणों में 'तं' उस को 'न पावई' नहीं पाता है ।
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' तित्थवरपवत्तयं' श्रेष्ठ तीर्थ के प्रवर्तक, 'तमरयर हियं' अज्ञान - अन्धकार और कर्म-रज से राहत, 'धीरजण' पण्डित लोगों के द्वारा 'थुअच्चि अं' स्तवन और पूजन किये गये, 'चुअकलिकलुस' कलह और कलुष भाव से मुक्त, 'संतिसुहपवत्तयं' शान्ति और सुख के प्रवर्तक [ और ] 'महामुणि' महान् मुनि [ ऐसे ] 'संतिम्' श्री शान्तिनाथ की 'सरणम्' शरण को 'तिगरणपयओ' त्रिकरण से सावधान हो कर 'अहं' मैं 'उवणमे' प्राप्त करता हूँ ॥ १७ ॥ १८ ॥ भावार्थ - खिद्यकत और ललितक नामक इन दो छन्दों में श्रीशान्तिनाथ की स्तुति है ।
शीतलता के गुणों में शरत्काल का पूर्ण चन्द्र, तेज के गुणों में शरत्काल का प्रखर सूर्य, सौन्दर्य के गुणों में इन्द्र और दृढता के गुणों में सुमेरु श्रीशान्तिनाथ की बराबरी नहीं कर सकते । सारांश, श्रीशान्तिनाथ भगवान् उक्त गुणों में इन्द्रादि से बढ़ कर है । उत्तम धर्म - तीर्थ को चलाने वाले, अज्ञान और कर्म - मल से परे, विद्वज्जनों के द्वारा स्तवन और पूजन को प्राप्त,
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