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२६४ . प्रतिक्रमण सूत्र । __अन्वयार्थ-'देवदाणविंद' देवेन्द्र और दानवेन्द्र के तथा 'चंदसूर' चन्द्र और सूर्य के 'वंद' वन्दनीय ! 'हट्ठ' हर्षयुक्त, 'तुट्ठ' सन्तोषयुक्त, "जिट्ठ' अत्यन्त प्रशंसा योग्य, 'परमलट्ठरूव' उत्कृष्ट और पुष्ट स्वरूप वाले ! 'धंत' तपायी हुई 'रूप्प' चाँदी की 'पट्ट' पाट के समान 'सेय' सफेद, 'सुद्ध' शुद्ध, 'निद्ध' चिकनी और 'धवलदंतपंति कान्ति वाली ऐसी दाँत की पङ्क्ति वाले ! 'सत्ति' शक्ति, 'कित्ति' कीर्ति, 'मुत्ति' निर्लोभता, 'जुत्ति' युक्ति और 'गुत्ति' गुप्ति में 'पवर' प्रधान ! 'दित्त' दीप्ति वाले 'ते तेज के 'वंद' पुञ्ज ! धेअध्यान करने योग्य ! 'सव्वलोअ' सब लोक में भाविअप्पभाव' फैले हुए प्रभाव वाले! [और] 'णेअ' जानने योग्य ! ऐसे] 'संति' हे शान्तिनाथ, भगवन् ! 'मे' मुझ को 'समाहिं' समाधि पइस' दे ॥१४॥ . भावार्थ--यह नाराचक छन्द है । इस में श्रीशान्तिनाथ की स्तुति है।
हे देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र और सूर्य को वन्दन करने योग्य ! हर्षपूर्ण, प्रसन्न, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट और लप्ट-पुष्ट स्वरूा वाले ! तपाकर शोधी हुई चाँदी की पाट के समान सफेद, निर्मल, चिकनी और उज्ज्वल ऐसी दाँत की पङ्क्ति धारण करने वाले ! शक्ति यश निर्ममता, युक्ति और गुप्ति में सर्व-श्रेष्ठ ! देदीप्यमान तेज के पुञ्ज : ध्यान करने योग्य ! सब लोगों में विख्यात महिमा वाले ! और जानने योग्य ! ऐसे हे श्रीशान्तिनाथ भगवन् ! मुझ को शान्ति दीजिए ॥ १४॥ .
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