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प्रतिक्रमण सूत्र । भावार्थ-जिस के तेज से और सब तेज दब गये हैं, जिस की सेवा सुरपति तथा असुरपति तक ने की है, जो मलरहित तथा भयरहित है और जो तीनों जगत् में मुकुट के समान है, उस श्रीमहावीर भगवान् की जय हो रही है ॥२८॥
वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिता,वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः ।
वीरातीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीधृतिकीर्तिकान्तिनिचयः श्रीवीर! भद्रंदिश ॥२९॥
अन्वयार्थ--'वीरः' महावीर 'सर्व' सब 'सुरासुरेन्द्र' सुर और असुर के इन्द्रों से 'महितः' पूजित है, 'बुधाः' विद्वान् लोग 'वीरं' महावीर के 'संश्रिताः' आश्रित हैं, 'वीरेण' महावीर ने 'स्वकर्मनिचयः' अपना कर्म-समूह 'अभिहतः' नष्ट किया है, 'वरािय' महावीर को 'नित्यं' हमेशा 'नमः' नमस्कार हो, 'वीरात्' महावीर से 'इदं' यह 'अतुलं' अनुपम 'तीर्थम्' शासन 'प्रवृत्तम्' शुरू हुआ है, 'वीरस्य' महावीर का 'तपः' तप 'धोरं' कठोर है, 'वीरे' महावीर में 'श्री' लक्ष्मी 'धृति' धीरज 'कीर्ति' यश और] 'कान्ति' शोभा का 'निचयः' समूह है, 'श्रीवीर!' हे श्रीमहावीर ‘भद्र' कल्याण 'दिश' दे॥२९॥
भावार्थ----इस श्लोक में कवि ने भगवान् की स्तुति करते हुए क्रमशः सात विभक्तियों का तथा संबोधन का प्रयोग कर के अपनी कवित्व-चातुरी का उपयोग किया है।
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