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प्रतिक्रमण सूत्र । चन्द्रप्रभप्रभाश्चन्द्र,--मरीपिनिचयोज्ज्वला। मूर्तिमूर्तसितध्यान, निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥
अन्वयार्थ--'चन्द्र' चन्द्र की 'मरीचिनिचयः' किरणों के पुञ्ज के समान 'उज्ज्वला' निर्मल [इसी कारण] 'मूर्त' मूर्तिमान् 'सितध्यान' शुक्लध्यान से निर्मिता इव' मानो बनी हों ऐसा] ' चन्द्रप्रभप्रभोः' चन्द्रप्रभ स्वामी की 'मूर्तिः' देह 'वः' तुम्हारी 'श्रिये लक्ष्मी के लिये 'अस्तु हो ॥१०॥ ___ भावार्थ—इस श्लोक में कविने भगवान् की सहज श्वेत देह का उत्प्रेक्षा कर के वर्णन किया है। ___भगवान् चन्द्रप्रभ स्वामी की देह स्वभाव से ही चन्द्र के सेज की सी अत्यन्त स्वच्छ है, इस लिये मानो यह जान पड़ता है कि वह मूर्तिमान् शुक्लध्यान से बनी हुई है । ऐसी सहज सुन्दर देह तुम्हारे सब के लिये कल्याणकारिणी हो ॥१०॥
करामलकवद्विश्वं, कलयन् केवलश्रिया ।।
अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥११॥ ... अन्वयार्थ-'केवलश्रिया' केवलज्ञान की संपत्ति से 'विश्व' जगत् को 'करामलकवत्' हाथ में रक्खे हुए आँवले की तरह 'कलयन्' जानने वाला [और] 'अचिन्त्य' अचिन्तनीय 'माहात्म्य' प्रभाव के 'निधिः' भण्डार [ऐसा] 'सुविधिः' सुविधिनाथ स्वामी 'वः' तुम्हारे 'बोधये' सम्यक्त्व के लिये 'अस्तु' हो ॥११॥
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