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________________ चैत्य - वन्दन -- स्तवनादि । २२५ जेनी कंचनवरणी काया छे, जस धोरी लंछन पाया छे, पुंडरीगिणी नगरीनो राया छे ||२|| सुणो० ॥ बार पर्षदा मांहि विराजे छे, जस चोत्रीश अतिशय छाजे छे, गुण पांत्रीश वाणीए गाजे छे ||३|| सुणो० ॥ भविजनने जे पडिवोहे छे, तुम अधिक शीतल गुण सोहे छे, रूप देखी भविजन मोहे छे ||४|| सुणो० ॥ तुम सेवा करवा रसीओ कुं, पण भरतमां दूरे वसीओ कुं, महा मोहराय कर फसीओ हुं ॥ ५ ॥ सुणो० ॥ पण साहिब चित्तमां धरीयो छे, तुम आणा खडग कर ग्रहीयो छे, पण कांईक मुजथी डरीयो || ६ || सुणो० ॥ जिन उत्तम पुंठ हवे पूरो, कहे 'पद्मविजय' थाउं शूरो, तो वाधे मुज मन अति नूरो ||७|| सुणो० ॥ [ श्रीसीमन्धरस्वामी की स्तुति' । ] श्रीसीमन्धर जिनवर, सुखकर साहिब देव, अरिहंत सकलजी, भाव धरी करूं सेव । सकलागमपारग, गणधर - भाषित वाणी, जयवंती आणा, 'ज्ञानविमल' गुणखाणी ||१|| १ - व्याकरण, काव्य, कोष आदि में स्तुति और स्तवन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है, परन्तु इस जगह थोड़ासा व्याख्या -भेद है । एक से अधिक श्वाकों के द्वारा गुण-कीर्तन करने को 'स्तवन' और सिर्फ एक श्लोक से गुण-कीर्तन करने को 'स्तुति' कहते हैं । [ चतुर्थ पञ्चाशक, गा० २३ की टीका ।] Jain Education International For Private & Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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