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चैत्य - वन्दन -- स्तवनादि ।
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जेनी कंचनवरणी काया छे, जस धोरी लंछन पाया छे, पुंडरीगिणी नगरीनो राया छे ||२|| सुणो० ॥ बार पर्षदा मांहि विराजे छे, जस चोत्रीश अतिशय छाजे छे, गुण पांत्रीश वाणीए गाजे छे ||३|| सुणो० ॥ भविजनने जे पडिवोहे छे, तुम अधिक शीतल गुण सोहे छे, रूप देखी भविजन मोहे छे ||४|| सुणो० ॥
तुम सेवा करवा रसीओ कुं, पण भरतमां दूरे वसीओ कुं, महा मोहराय कर फसीओ हुं ॥ ५ ॥ सुणो० ॥
पण साहिब चित्तमां धरीयो छे, तुम आणा खडग कर ग्रहीयो छे, पण कांईक मुजथी डरीयो || ६ || सुणो० ॥
जिन उत्तम पुंठ हवे पूरो, कहे 'पद्मविजय' थाउं शूरो, तो वाधे मुज मन अति नूरो ||७|| सुणो० ॥
[ श्रीसीमन्धरस्वामी की स्तुति' । ]
श्रीसीमन्धर जिनवर, सुखकर साहिब देव, अरिहंत सकलजी, भाव धरी करूं सेव । सकलागमपारग, गणधर - भाषित वाणी, जयवंती आणा, 'ज्ञानविमल' गुणखाणी ||१||
१ - व्याकरण, काव्य, कोष आदि में स्तुति और स्तवन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है, परन्तु इस जगह थोड़ासा व्याख्या -भेद है । एक से अधिक श्वाकों के द्वारा गुण-कीर्तन करने को 'स्तवन' और सिर्फ एक श्लोक से गुण-कीर्तन करने को 'स्तुति' कहते हैं । [ चतुर्थ पञ्चाशक, गा० २३ की टीका ।]
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