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प्रतिक्रमण सूत्र ।
मि खमा०, इच्छा०, सामायिअं पारेमि, यथाशक्ति'। फिर "इच्छामि खमा०, इच्छा०, सामायिअं पारिअं, तहत्ति" इस प्रकार कह कर दाहिने हाथ को चरवले पर या आसन पर रखे और मस्तक झुका कर एक नवकार मन्त्र पढ़ के "सामायिअ वयजुत्तो" सूत्र पढ़े। पीछे दाहिने हाथ को सीधा स्थापनाचार्य की तरफ कर के एक नवकार पढ़े।
. दैवसिक-प्रतिक्रमण की विधि। .
प्रथम सामायिक लेवे । पीछे मुहपत्ति पडिलेह कर द्वादशावर्त-वन्दन-सुगुरु-वन्दन करे; पश्चात् यथाशक्ति पच्चक्खाण करे । [तिविहाहार उपवास हो तो मुहपत्ति का पडिलेहण करना, द्वादशावर्त्त-वन्दन नहीं करना । चउव्विहाहार उपवास हो तो पडिलेहण या द्वादशावर्त-वन्दन कुछ भी नहीं करना । ] पीछे 'इच्छामि खमा०, इच्छा०, चैत्य-वन्दन करूं? इच्छं' कह कर चैत्य-वन्दन करे ।
१-यदि गुरु महाराज के समक्ष यह विधि की जाय तो 'पुणोवि कायव्वं' इतना गुरु के कहने के बाद 'यथाशक्ति' और दूसरे आदेश में 'आयारो न मोत्तव्बो' इतना कहे बाद 'तहत्ति' कहना चाहिए।
२-यदि स्थापनाचार्य, माला, पुस्तक वगैरह से नये स्थापन किये हों तो इस की जरूरत है, अन्यथा नहीं।
३-इस के द्वारा वीतराग देव को नमस्कार किया जाता है जो पण मङ्गलरूप हैं। इस कारण प्रतिक्रमण जैसी भावपूर्ण क्रिया से पहले चित्त-शुद्धि के लिये चैत्यवन्दन करना अति आवश्यक है। संपूर्ण चैत्यवन्दन में बारह अधिकार हैं। वे इस प्रकारः
'नमुत्थुणं' से 'जिय भयाण' तक पहला अधिकार है । 'जे अइ ।' गाथा दूसरा अधिकार है । इस से भावी और भूत तीर्थङ्करों को वन्दना . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org