________________
लघु- शान्तिस्तव ।
१३९ सुवर्ण, शङ्ख, प्रवाल- मूँगे, नीलम और मेघ के समान वर्ण वाले, 'विगतमोहम् ́ मोह- राहत और 'सर्वामरपूजितं ' सब देवों के द्वारा पूजित, 'सप्ततिशतं ' एक सौ सत्तर * (१७०) 'जिनानां' जिनवरों को 'वन्दे' वन्दन करता हूँ ॥ १ ॥
भावार्थ - मैं १७० तीर्थङ्करों को वन्दन करता हूँ । ये सभी निर्मोह होने के कारण समस्त देवों के द्वारा पूजे जाते हैं । वर्ण इन सब का भिन्न भिन्न होता है— कोई श्रेष्ठ सोने के समान पीले वर्ण वाले, कोई शङ्ख के समान सफेद वर्ण वाले, कोई मूँगे के समान लाल वर्ण वाले, कोई मरकत के समान नील वर्ण वाले और कोई मेघ के समान श्याम वर्ण वाले होते हैं ॥१॥
:: -
४४ - लघुशान्ति स्तंव ।
शान्ति शान्तिनिशान्तं, शान्तं शान्ताऽशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शान्तिनिमित्तं मन्त्रपदैः शान्तये स्तौमि ॥ १ ॥
* यह, एक समय में पाई जाने वाली तीर्थकरों की उत्कृष्ट संख्या है ।
१ - इस की रचना नाडुल नगर में हुई थी । शाकंभरी नगर में मारी का उपद्रव फैलने के समय शान्ति के लिये प्रार्थना की जाने पर बृहद्गच्छीय श्रीमानदेव सूरि ने इस को रचा था । पद्मा, जया, विजया और अपराजिता, ये चारों देवियाँ उक्त सूरिकी अनुगामिनी थीं। इस लिये इस स्तोत्र के पढ़ने, सुनने और इस के द्वारा मन्त्रित जल छिड़कने आदि से शान्ति हो गई । इस को दैवासिक-प्रतिक्रमण में दाखिल हुए करीब पाँच सौ वर्ष हुए।
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org