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________________ संसारदावानल | ४९ कमल-मालाओं से जो शोभायमान हैं, और भक्त लोगों की -कामनाएँ जिन के प्रभाव से पूर्ण होती हैं, ऐसे सुन्दर और प्रभावशाली जिनेश्वर के चरणों को मैं अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूँ || २ || बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामं । जीवाहिंसाऽविरललहरीसंगमागाहदेहं || चूलावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारं । सारं वीरागमजलनिधिं सादरं साधु सेवे ॥ ३॥ अन्वयार्थ — ' बोधागाधं ' ज्ञान से अगाध - गम्भीर, 'सुपदपदवीनीरपूराभिरामं' सुन्दर पदों की रचनारूप जल-प्रवाह से मनोहर, 'जीवाहिंसाऽविरललहरीसङ्गमागाहदेहं' जीवदया रूप निरन्तर तरङ्गों के कारण कठिनाई से प्रवेश करने योग्य, 'चूलाबेलं' चूलिका रूप तटवाले 'गुरुगममणीसंकुलं' बड़े बड़े आलावा रूप रत्नों से व्याप्त [ और ] 'दूरपारं जिसका पार पाना कठिन है [ ऐसे ] ' सारं ' श्रेष्ठ 'वीरागमजलनिधिं' श्रीमहावीर के आगम-रूप समुद्र की [ मैं ] ' सादरं ' आदर-पूर्वक 'साधु' अच्छी तरह 'सेवे' सेवा करता हूँ ॥ ३ ॥ भावार्थ – [ आगम स्तुति ] इस श्लोक के द्वारा समुद्र -के साथ समानता दिखा कर आगम की स्तुति की गई है । जैसे समुद्र गहरा होता है वैसे जैनागम भी अपरिमित ज्ञान वाला होने के कारण गहरा है । जल की प्रचुरता के कारण जिस प्रकार समुद्र सुहावना मालूम होता है वैसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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