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________________ [ २ ] (६) प्र० - तब तो जो परमेष्ठी नहीं हैं और जो हैं उन में शक्ति की उपेक्षा से क्या अन्तर हुआ ? उ०- कुछ भी नहीं । अन्तर सिर्फ शक्तियों के प्रकट होटे न होने का है। एक में आत्म-शक्तियों का विशुद्ध रूप प्रकट हो गया है, दूसरों में नहीं | (७) १० - जब असलियत में सब जीव समान ही हैं तब उन सब का सामान्य स्वरूप (लक्षण) क्या है ? उ०- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि पौद्गलिक गुणों का न होना और चेतना का होना, यह सब जीवों का सामान्य लक्षण है 1 (८) प्र० - उक्त लक्षण तो अतीन्द्रिय-इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकने वाला है; फिर उस उसके द्वारा जीवों की पहिचान कैसे हो सकती है ? 8" रसमरूवमगंध, अन्वत्तं चेदणागुणमसहं । जाणें अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिहसं ठाणं ॥” [ प्रवचनसार, ज्ञेयतत्वाधिकार, गाथा 5० ।] अर्थात् - जो रस, रूप, गन्ध और शब्द से रहित है, जो अव्यक्त-स्प शरहित है, अत एव जो लिगो-इन्द्रियों से अग्राह्य है, जिस के कोई संस्थान आकृति नहीं है और जिस में चेतना शक्ति है, उस को जीव जानना चाहिए 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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