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(६) प्र० - तब तो जो परमेष्ठी नहीं हैं और जो हैं उन में शक्ति की उपेक्षा से क्या अन्तर हुआ ?
उ०- कुछ भी नहीं । अन्तर सिर्फ शक्तियों के प्रकट होटे न होने का है। एक में आत्म-शक्तियों का विशुद्ध रूप प्रकट हो गया है, दूसरों में नहीं |
(७) १० - जब असलियत में सब जीव समान ही हैं तब उन सब का सामान्य स्वरूप (लक्षण) क्या है ?
उ०- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि पौद्गलिक गुणों का न होना और चेतना का होना, यह सब जीवों का सामान्य लक्षण है 1
(८) प्र० - उक्त लक्षण तो अतीन्द्रिय-इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकने वाला है; फिर उस उसके द्वारा जीवों की पहिचान कैसे हो सकती है ?
8" रसमरूवमगंध, अन्वत्तं चेदणागुणमसहं । जाणें अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिहसं ठाणं ॥”
[ प्रवचनसार, ज्ञेयतत्वाधिकार, गाथा 5० ।]
अर्थात् - जो रस, रूप, गन्ध और शब्द से रहित है, जो अव्यक्त-स्प शरहित है, अत एव जो लिगो-इन्द्रियों से अग्राह्य है, जिस के कोई संस्थान आकृति नहीं है और जिस में चेतना शक्ति है, उस को जीव जानना चाहिए 1
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