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________________ मूलनायक तीर्थकर श्री नेमिनाथ गिरनार वह पावन स्थली है जिससे नेमि-राजुल की प्रेम, विरह, वैराग्य, कैवल्य और निर्वाण की अत्यन्त लोम हर्षक गाथाएं जुड़ी हुई हैं । कुमार अरिष्टनेमि विवाह हेतु राजिमती के द्वार पर उपस्थित होते हैं, किन्तु दावत के लिए एकत्रित पशुओं की करुण चीत्कार सुनकर अरिष्टनेमि विवाह से विमुख हो जाते हैं। पशु-वधशाला के द्वार खोलकर पशुओं को मुक्त करवा दिया जाता है और विवाह के लिए प्रस्तुत अरिष्टनेमि राजिमती की वरमाला स्वीकार करने की बजाय गिरनार पर्वत की ओर अपने कदम बढ़ा लेते हैं। अरिष्टनेमि के इस अभिनिष्क्रमण की कथा को न केवल घर-घर में गाया-सुनाया जाता है, वरन जैन-धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी इस महान् करुणा के चित्रित दृश्य को देखकर प्रभावित हो जाते हैं और प्रवज्या स्वीकार कर लेते हैं। राजिमती की वरमाला उसके हाथों में ही धरी रह जाती है। हल्दी और मेंहदी अपना रंग तो ले आती है, पर मांग भरने से पहले ही अहिंसा और करुणा का ऐसाअमृत अनुष्ठान होता है कि अरिष्टनेमि गिरनारवासी श्रमण हो जाते हैं । राजिमती भी उनके पावन पदचिह्नों का अनुसरण करती है। अरिष्टनेमि को गिरनार पर्वत पर साधना करते हए ध्यान की उज्ज्वल भूमिका में परमज्ञान उपलब्ध होता है। राजिमती, जो किसी वक्त नेमिनाथ की पत्नी होने वाली थी, अरिष्टनेमि के साध्वी संघ की प्रवर्तिका और अनुशास्ता बनी । अरिष्टनेमि भगवान महावीर से करीब बहत्तर हजार वर्ष पूर्व हुए। गिरनार पर्वत पर अरिष्टनेमि और राजिमती के अतिरिक्त अन्य अनेकानेक संत, महंत और सिद्ध योगियों का निर्वाण हुआ। सचमुच यह वह स्थली है, जो भारतीय आराध्य स्थलों का प्रतिनिधित्व करती SEAR गिरनार गुजरात के जूनागढ़ के पास समुद्र-तल से ३१०० फुट ऊँची पर्वतावली है । गगन चूमती पर्वत मालाओं के बीच परिनिर्मित यह पावन तीर्थ जैन-धर्म और हिन्दु-धर्म दोनों का पूज्य आराध्य स्थल है। जैनों में भी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही आम्नाय के अनुयायी इस तीर्थ की पवित्र माटी को अपने शीष पर चढ़ाने के लिए आते हैं। एक दृष्टि से तो यह पालीताना महातीर्थ की पांचवी ढूंक माना जाता है। यद्यपि पहाड़ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु सं. १२२२ में राजा कुमारपाल के महामंत्री आम्रदेव के प्रयासों से दुर्गम चढ़ाई को अपेक्षाकृत सरल बनाया हुआ है। पर्वत पर स्थित मंदिर एक प्रकार से मंदिरों का गांव ही दिखाई परिकर एवं शिखर का एक भाग 62
SR No.003646
Book TitleVishva Prasiddha Jain Tirth Shraddha evam Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1996
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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