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________________ यात्रा के लिए यात्रा संघ निकाला था। लौटते हुए पाटन नगरी से यह प्रतिमा लेकर आये थे। जिस रथ में यह प्रतिमा आयी थी, वह रथ आज यहां सुरक्षित है। जबकि कुछ लोग यह मानते हैं कि यह रथ मुल्तान के मुसाफिर शिल्पकारों का है। वि. सं. १६७३ मिगसर शुक्ला द्वादशी के दिन आचार्य श्री जिनराजसूरि के करकमलों से प्रतिष्ठा होने का शिलालेख उत्कीर्ण है। यहां विराजित मूलनायक श्री सहस्रफणा चिंतामणी पार्श्वनाथ की प्रतिमा देश में वह प्राचीनतम विरल प्रतिमा है, जो सहस्रफणा से अभिमंडित है। यद्यपि जीर्णोद्धार का कार्य अभी निकट में ही सम्पन्न हुआ है, किन्तु इस तीर्थ को बनाने और बचाने का असली श्रेय थीरू शाह को जाता है। लौद्रवपुर के आस-पास दूर-दराज तक हजारों इमारतों के ध्वंसावशेष प्राचीन इतिहास की याद दिलाते हैं। इन खंडहरों के बीच शान्त वातावरण में स्थापित यह सुरम्य तीर्थ रेगिस्तान के रेतीले टीलों में खिले हुए किसी मनवांछा पूरक कल्पवृक्ष की तरह है। मंदिर के परिक्षेत्र में शिल्पकला के अद्भुत नमूने देखने को मिलते हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार तथा परिसर बेहद सुंदर है। मंदिर के शीर्ष स्थल पर एक ऐसे कल्पवृक्ष का अवशेष है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह कल्पवृक्ष है। प्रबंधकों ने इस वृक्ष की सुरक्षा और सुन्दरता के लिए इस पर आकर्षक खोल भी चढ़ा रखा है। यहां के स्तम्भ छत और शिखर भी बारीक नक्काशी के अनूठे नमूने हैं। मंदिर के अधिष्ठायक देव भी अत्यन्त चमत्कारी और प्रभावशाली माने जाते हैं। आम यात्रियों तथा पर्यटकों के अलावा यहां भारतीय सेना के बड़े-बड़े कमांडो भी प्रार्थना और पूजा के लिए आते हैं। यहां के अधिष्ठायक के नाम से की गयी मंसा पूरी होने की श्री लोकमान्यता है। यहां नागराज भी दर्शन देते हुए दिख जाते हैं। Jain Education mational • जलनिकासी का कलात्मक द्वार 38 For Private Per al Use Ority कुशल गुरु की कलात्मक छत्री कल्पवृक्ष
SR No.003646
Book TitleVishva Prasiddha Jain Tirth Shraddha evam Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1996
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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