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दर्शक आज भी विस्मित भाव से देखते हैं।
जैसलमेर में आचार्य श्रीजिनवर्धनसूरि, आचार्य श्रीजिनचन्द्र सूरि, महोपाध्याय समयसुन्दर आदि अनेक प्रभावक संतों का आगमन हुआ। यहां के सेठ श्री थीरूशाह, संघवी श्री पांचा, सेठ श्री संडासा
और जगधर आदि श्रेष्ठिवरों के सक्रिय सहयोग से जैसलमेर आज सारे देश की धरोहर बन चुका है। किसी समय जैसलमेर की यात्रा को अत्यंत दुर्गम माना जाता था, पर अब वैसी बात नहीं है। यहां हर दिन सैकड़ों हजारों पर्यटक शिल्पकला का निरीक्षण करते और आनन्द लेते हुए दिखाई दे सकते हैं।
लोद्रवपुर लोद्रवपुर जैसलमेर से १५ और अमरसागर से १० कि. मी. की दूरी पर स्थित है। किसी समय यह लौद्र राजपूतों की राजधानी का बड़ा वैभवशाली नगर रहा है। यही वह स्थली है, जहां भारत का प्राचीनतम विश्वविद्यालय स्थापित था, किन्तु जैसलजी और रावल भोजदेव, जो एक दूसरे के काका-भतीजा थे, के पारस्परिक वैमनस्य का यह परिमाण हुआ कि लौद्रवपुर आज ध्वंसावशेष के रूप में बचा हुआ है। जैसलजी ने मुहम्मद गोरी से सैनिक संधि करके भोजदेव रावल की राजधानी लौद्रवा पर चढ़ाई की। भोजदेव और हजारों यौद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। गोरी के सैनिकों ने लौद्रव को खंडहर ही कर दिया । लोद्रव मंदिर को भी क्षति पहुंची। जैसलमेर जैन-तीर्थ में जो श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है, वह वास्तव में वही प्रतिमा है जो युद्ध से पूर्व लौद्रवपुर तीर्थ में विराजमान थी।
थीरूशाह ने इस महामंदिर का पुन: निर्माण करवाया। मूलनायक के रूप में आज जो प्रतिमा यहां अधिष्ठित है, उसके बारे में यह कहा जाता है कि मुल्तान की ओर जा रहे किन्हीं श्रेष्ठ शिल्पियों को यह स्वप्न आया कि वे जो मूर्ति मुल्तान ले जा रहे हैं, वह लोद्रवपुर तीर्थ के लिए प्रदान की जाये। थीरू शाह ने शिल्पियों को प्रचुर पुरस्कार देकर प्रतिमा स्वीकार की थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार लौद्रवपुर तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाकर थीरू शाह पालीताना तीर्थ की
लोद्रवा की जालियां:महीन नक्काशी
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