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धरणाशाह ने अनेक शिल्प-निदेशकों से मन्दिर के नक्शे बनवाये । प्रसिद्ध शिल्प-निदेशक देपा की कल्पना उन्हें न केवल अपने स्वप्नानुरूप लगी, वरन् उसमें शिल्पगत दूरदर्शिता की झलक भी मिली । देपा ने धरणा के सौजन्य से गूंगे पत्थरों को मुखर कर दिया। मन्दिर के लिए राणा कुम्भा ने भूखण्ड दिया था एवं मन्दिर निर्मित होने पर वहां नया नगर भी बसा दिया। धरणा ने इस भक्तिपूर्ण सहभागिता के लिए आभार व्यक्त करने हेतु राणा के नाम से नगर का नाम ही राणकपुर रख दिया।
मंदिर का निर्माण कार्य विक्रम संवत १४४६ में प्रारंभ हुआ। पचास वर्षों के निरंतर परिश्रम से मंदिर का निर्माण - कार्य पूर्ण हआ। मंदिर सचमुच कला का आदर्श बन चुका था। धरणा की इच्छा मंदिर को और अधिक कलापूर्ण बनाने की थी, किन्तु धरणाशाह काफी वृद्ध हो चुके थे। अतः विक्रम संवत १४९६ में आचार्य सोमसुंदर के कर-कमलों से इस भव्य मंदिर की प्रतिष्ठा करवा दी गई।
राणकपुर का मंदिर अरावली की पहाड़ियों से सुरक्षित है। पर्यटक दूर से ही इस मंदिर का सलौना रूप देखकर मुग्ध हो उठता है। ज्यों-ज्यों वह मंदिर के करीब पहुंचता है, उपशिखरों पर हवा में डोलायमान घंटियों की टंकारें उसके हृदय को आन्दोलित करने लग जाती हैं । ये टंकारें हमारी सोई चेतना को जाग्रत और आह्लादित करती
मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान
परमात्मा की अदृश्य शक्ति और कला की संसृति दर्शकों एवं श्रद्धालुओं को प्रांगण में सस्नेह आमंत्रण देती है । चाहे कोई परमात्मा पर विश्वास रखता हो या न रखता हो, किन्तु यहां आकर दर्शक अपने हृदय को भावाभिभूत पाता है। यद्यपि मंदिर का संपूर्ण शिल्प जैन परिवेश में पल्लवित हुआ है, फिर भी मंदिर-निर्माता ने रामायण और महाभारत के चुनिंदा दृश्यों का भी शिल्पांकन करवाया है।
मन्दिर के प्रवेश द्वार पर दस्तक देने के पूर्व ही दर्शक को साम्प्रदायिक उदारता के जो उम्दा नमूने देखने को मिलते हैं, वह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । मन्दिर की करीब पच्चीस सीढ़ी चढ़ने पर पर्यटक आकर्षित होता है पाषाण की शिल्पाकृत छत से। छत में पंचशरीरधारी एक वीर पुरुष की विशाल उभरती आकति है। यह विशाल आकृति सम्भवतः महाभारत में वर्णित कीचक से सम्बन्धित है । जिसका सिर एक, पर शरीर पाँचथे। यह दृश्य अत्यन्त मनोहर और कौतुहल भरा है । इसी छत पर रामायण और महाभारत के अनेक घटनाक्रम अंकित हैं।
प्रवेश-द्वार पार करते ही अगल-बगल में दो प्रकोष्ठ बने हुए हैं, जिनमें जैन-तीर्थंकरों की प्राचीनतम प्रतिमाएं हैं। एक प्रकोष्ठ में खड़ी.एवं बैठी, पर विशाल प्रतिमाएँ हैं। कुछ प्रतिमाएं तो उन आतताइयों के हाथों से गुजर चुकी हैं जो भारतीय सभ्यता और मान्यताओं को खण्डित करने में तुले हुए थे।
कुछ और सीढ़ियां चढ़ने पर मन्दिर का प्रथम प्रांगण है । जहाँ मन्दिर की रश्म कोरणी को तो देखा जा सकता है, मगर यहाँ खडे होकर होने वाला विहंगावलोकन शिल्पकला की बेमिसालताको नजर
नर-मादा घंटों में से एक