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________________ सैकड़ों की संख्या में हैं, हमने उन तीर्थों को ही सम्मिलित किया है, जो श्रद्धा की दष्टि से सर्वतोभद्र सर्वमान्य हैं और शिल्प की दृष्टि से जिनकी चर्चा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होती है। कुछ तीर्थ ऐसे हैं जहां शिल्प अनूठा न भी हो, पर श्रद्धालुओं की श्रद्धा का वह केन्द्र है जैसे शंखेश्वर और नाकोड़ा। कुछ तीर्थ शिल्प की दृष्टि से अपने आप में अप्रितम हैं और जिन मन्दिरों को देखने के लिए विदेशी भारत तक आते हैं जैसे-देलवाड़ा, आबू, राणकपुर, जैसलमेर आदि । देलवाड़ा को देखने के बाद तो व्यक्ति सारे संसार में घूम आये, शिल्प-कला का यह अनोखा रूप कहाँ देखने को नहीं मिलेगा। यह मन्दिर भारत का ताज है। पालीताना एक ऐसा तीर्थ है जो मन्दिरों का नगर कहा जाता है। जो महिमा हिन्दुओं में हरिद्वार की है, जैनों में वही पालीताना की है। जैसलमेर और ओसियां में प्राचीनतम कला के दर्शन होते हैं। श्रवणबेलगोला में संसार का एक आश्चर्य स्थापित है और वह है वहां अभ्युत्थित भगवान् बाहुबली की विशाल नयनाभिराम प्रतिमा। प्रस्तुत ग्रंथ में हमने कुल चौदह तीर्थों को निदर्शित किया है। हमारा मुख्य दृष्टिकोण इन तीर्थों के शिल्प-पक्ष को उभारना था। वहां शिल्पकारों ने जिस बारीकी से नक्काशी की है, हमने हर सम्भव उसे छायांकित और प्रकाशित किया है । हमारे अजीज शिष्य श्री महेन्द्र भंसाली ने छायांकन में अपना सारा हूनर उड़ेल दिया है। उनकी छायांकन-साधना अपने आप में अनुपम अप्रतिम है। ग्रन्थ का प्रकाशन यद्यपि एक दुरूह कार्य था, किन्तु अकेले जोधपुर ने ही इस कार्य को सुगम बना दिया। हमारे श्रद्धालुओं ने प्रकाशन के महत्त्व को समझा और सबके पारस्परिक सहयोग से जितयशा फाउंडेशन के तत्त्वावधान में ग्रन्थ परमपिता परमात्मा के श्रीचरणों में समर्पित किया जा सका। स्व. आचार्य प्रवर श्री जिनकांतिसागरसूरि जी म. के हम कृतज्ञ हैं, जिनका हम पर अभय हस्त रहा। पूज्यप्रवर गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी के म. प्रति हम प्रणत हैं, जिनकी सन्निधि में ग्रन्थ का लेखन-संयोजन हआ। श्री कैलाश जी भंसाली, श्री प्रकाशचन्द जी दफ्तरी आदि महानुभावों की सक्रिय भूमिका साधुवादाह है। ग्रन्थ के कम्पोजिंग हेतु श्री मनीष चौपड़ा, संयोजन हेतु श्री नवीन कोठारी एवं मुद्रण हेत श्री रंजन कोठारी की समर्पित सेवाएं अभिनन्दनीय हैं। "नाह। ग्रन्थ का आप निरीक्षण करें और एक बार इन तीर्थों की यात्रार्थ पधारें । ये तीर्थ और वहां की कला हमारी भारतीय एवं जैन संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति है। इनकी यात्रा, पूजा और रक्षा हम सब का धर्म है। ग्रन्थ हमारे देश की श्रद्धा एवं कलां को जन-जन तक, देश-विदेश तक पहंचाने में सहायक हो, लेखन-प्रकाशन के पीछे यही विनम्र उद्देश्य है। सहयोगी जनों के प्रति निर्व्याज साधुवाद। -महोपाध्याय ललितप्रभ सागर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003646
Book TitleVishva Prasiddha Jain Tirth Shraddha evam Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1996
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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