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प्रकाशकीय श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर का यह प्रकाशन कई दृष्टियों से बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण है । यह न कोई जीवनी है, न उपदेश अपितु जैन संस्कृति की गरिमा को उद्घोषित करनेवाला एक तथ्यमूलक प्रकाशन है । सब जानते हैं भाषा और लिपि न केवल भारतीय वरन् विश्व-संस्कृति की अनिवार्य आवकताएँ हैं। ब्राह्मी लिपि दादी माँ है, प्रायः समस्त भारतीय लिपियों की। वह मात्र आकृतियों की तालिका नहीं है, अपितु आध्यात्मिक प्रेरणाओं की सूक्ष्म संकलिका भी है। जैन संदर्भ में ब्राह्मी और ब्राह्मी लिपि, जिन्हें लोकमानस करीब-करीब भुला चुका है, को जाँचने-परखने का यह प्रथम प्रामाणिक और तर्कसंगत प्रयास है। विद्वान् लेखक ने इसे लिखने में परिश्रम तो अनथक किया ही है साथ ही जहाँ भी संभव हुआ है उसने प्राचीन जैन ग्रन्थों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों, रजत एवं स्वर्णपट्टों तथा मूर्तिलेखों से तथ्यदोहन भी किया है । हमें विश्वास है, ग्रन्थ के प्रकाशन से विद्वज्जन तो लाभान्वित होंगे ही, उन लोगों को भी नये तथ्य और मौलिक सामग्री मिलेगी जो लिपि का क, ख, ग भी नहीं जानते ।
_ "लिपि : व्युत्पत्ति और विश्लेषण' के अन्तर्गत लेखक ने अभिनव सामग्री का संयोजन किया है । विषय-वस्तु के जटिल और दुरूह होते हुए भी उसने अपने सहज व्यक्तित्व की सरसता से उसे हरा-भरा और सुखद बनाया है इसीलिए जानलेवा मरुस्थल में भी कई शाद्वल-खण्ड देखे जा सकते हैं, कई सघन अमराइयों की छाँव में विश्राम किया जा सकता है । हमें भरोसा है, विषय की जटिलता पाठक को कहीं रोकेगी या थका येगी नहीं, वह सर्वत्र विभोर और प्रसन्न बना रहेगा। ___ अब यह तथ्य प्रायः सर्वसम्मत है कि भगवान् ऋषभदेव पूर्ववैदिक थे और उन्होंने कर्मभूमि का प्रवर्तन किया था। उन्होंने प्रजा को छह आवश्यक नित्यकर्म बताये थे, तथा उसे नाना विद्याओं की शिक्षा-दीक्षा दी थी। उन्होंने अपनी बड़ी बेटी ब्राह्मी को लिपि-ज्ञान दिया था। ब्राह्मी ने लिपि की गहरी साधना की थी। वह लोकप्रिय थी, लोकानुरंजिनी । उसने स्थानीयता के तथ्य का अध्ययन किया था और तदनुसार १८ लिपियों का प्रचलन भी । इन सबका विशद विवेचन जैन ग्रन्थों में सुरक्षित है। प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक ने केवल जैन ही नहीं वरन् बौद्ध स्रोतों की भी सहायता ली है यौर अभी तक अजानेअविदित तथ्यों को प्रकट किया है। ब्राह्मी कभी दिवंगत नहीं हुई, उसका स्वभाव सदैव लोकोन्मुख रहा; उसने हर युग, देश और काल में नया रूपाकार ग्रहण किया और बदलते हुए संदर्भो में समायोजित होते हुए भी वह अत्यन्त वैज्ञानिक और आध्यात्मिक बनी रही। उसका सांस्कृतिक व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहा। इसीलिए आज भी भारत की प्रत्येक लिपि पर ब्राह्मी की छाप देखी जा सकती है । इसी दृष्टि से लेखक ने नागरी को 'आधुनिक ब्राह्मी' अभिहित किया है । हमें विश्वास है लिपि के इतिहास में एक क्वाँरा अध्याय खोलनेवाला यह ग्रन्थ महवत्त्पूर्ण सिद्ध होगा । परम पूज्य उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज की प्रेरणा से प्रकाशित यह ग्रन्थ पाठकों में तो लोकप्रिय होगा ही, विद्वज्जनों में भी भरपूर समादृत होगा। समिति कृतज्ञ है विद्वान् लेखक, कलामी श्री विष्णु चिचालकर तथा नई दुनिया प्रेस की जिन्होंने एक समन्वित प्रयत्न द्वारा इसे इतना कलात्मक और निर्दोष रूप प्रदान किया है। -मंत्री
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