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ब्राह्मण को ही नहीं, सभी वर्गों को था। इससे यह भी सिद्ध है कि जो लोभ के वशीभूत है, वह ज्ञानार्जन नहीं कर पाता, अपितु अर्जित को भी विस्मरण कर जाता है। महर्षि वेद व्यास ने लिखा है--
“वाश्चत्त्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभादज्ञानतां गताः ॥" १ अर्थ--पूर्व में (पहले) ब्रह्मा के द्वारा चार वर्णों की स्थापना की गई थी और जिनके लिए ब्राह्मी लिपि तथा सरस्वती (विद्या) की रचना की थी, वे लोभ के कारण अज्ञानता को प्राप्त हो गये ।
यह कहना ठीक नहीं होगा कि दीक्षित ब्राह्मण ही ब्राह्मी लिपि का प्रयोग और उच्चारण करने का अधिकारी था । ताड्य ब्रा० १७/४ में लिखा है, "अदीक्षिता दीक्षितवाचं वदन्ति" इसका अर्थ है कि व्रात्य लोग यद्यपि दीक्षित नहीं हैं, फिर भी दीक्षा पाये हुओं की भाषा बोलते हैं । डा० सम्पूर्णानन्द ने व्रात्यकाण्डभूमिका में लिखा है, "उपनयनादि से हीन मनुष्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे लोगों को वैदिक कृत्यों के लिए सामान्यतः अनधिकारी और पतित माना जाता है, किन्तु यदि कोई व्रात्य विद्वान् और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करें, फिर भी वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा।"२ द्राविड़ों को भी अदीक्षित और अनार्य माना जाता था, किन्तु द्राविड़ भाषाओं की सभी लिपियाँ ब्राह्मी से निकली हैं, ऐसा विद्वान् मानते हैं। श्री दिनकरजी ने अपने ग्रन्थ 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है, "ब्राह्मी का ज्ञान अशोक के समय दक्षिण भारत में भी प्रचलित रहा होगा, अन्यथा अशोक ने अपने अभिलेख दक्षिण में भी ब्राह्मी में ही नहीं खुदवाये होते । दक्षिण भारत में प्रचलित जैन परम्परा के अनुसार ब्राह्मी ऋषभदेव की बड़ी पुत्री थीं। ऋषभदेव ने ही अठारह प्रकार की लिपियों का आविष्कार किया, जिनमें से एक लिपि कन्नड़ हुई।" ३ तेलग तथा कन्नड़ लिपियों में अत्यल्प अन्तर है, उतना जितना कि गुजराती और देवनागरी में । दो-तीन अक्षरों के सिवा बाकी सब अक्षर दोनों लिपियों में समान हैं। ब्राह्मी लिपि की वही शाखा, जिससे कन्नड़ लिपि निकली है, दक्षिण में सिंहल तथा पूर्व में सुदूर जावा तक जा पहुँची। तमिल लिपि ब्राह्मी लिपि की दूसरी शाखा से निकली है। अर्थात् द्राविड़ों को ब्राह्मी लिपि सीखने और बोलने का अधिकार था । आचार्य बराहमिहिर ने तो यहाँ १. महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म, १२/१८१/१५. २. व्रात्यकाण्ड भूमिका, डॉ० सम्पूर्णानन्द-लिखित, पृष्ठ २. ३. संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ ४४. ४. ' कन्नड़ साहित्य का नवीन इतिहास', पृ० ६.
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