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________________ ५४ सिन्धु घाटी की सभ्यता भारतीय सभ्यता थी, इसमें कोई सन्देह नहीं है । उसका प्रचार-प्रसार समूचे भारत में था। आगे पनपने वाली भारतीय सभ्यता में भी उसके चिह्न निःशेष नहीं हुए, यह आज की शोध-खोजों से प्रकट है । राय बहादुर प्रो. रामप्रसाद जी चंदा का अभिमत है कि मोहन-जो-दरो और मथुरा की जैनमूर्तियों में हू-ब-हू समानता है । अर्थात् वैसी ही कायोत्सर्ग मुद्रा, वैसी ही ध्यानावस्था और वैसी ही वैराग्य दृष्टि । यद्यपि मिश्र और ग्रीक की प्राचीन मूर्तियों की भी कायोत्सर्ग मुद्रा है, किन्तु वैराग्यपूर्ण ध्यानावस्था नहीं । यह बात केवल जैन मूर्तियों प्राप्त होती है, अन्यत्र नहीं ।' डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपने ग्रन्थ 'Hindu Civilization' में भी मोहन जोदरो और मथुरा की जैन मूर्तियों में साम्य स्वीकार किया है । ऋषभदेव की जिस खड्गासन प्रतिमा को खारबेल राजगृह से पुनः वापिस कलिंग में ले गया, वह भी मोहन जोदरो मूर्तियों की प्रतिकृति-सी थी । मोहन जोदरो और हरप्पा की खुदाइयों में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की उपलब्धि विवादग्रस्त नहीं है । पुरातात्त्विक दृष्टि से दर्पणवत् स्पष्ट है । यह सिद्ध है कि सम्राट ऋषभदेव ने अपने पुत्र बाहुबली को सीमा प्रान्त, पंजाब और सिन्ध की दिशा का पूरा राज्य बँटवारे में दिया था । यदि वहाँ जैनधर्म और संस्कृति विकसित हुई हो तो वह प्रश्नवाची नहीं है । जहाँ की सभ्यता इतनी समुन्नत हो, वहाँ के निवासियों को लिपिज्ञान न हो, कैसे सम्भव है ? तो, भारतीय लिपि की कहानी बहुत दूर तक चली गई है, यह सत्य है । बाहुबलि की राजधानी तक्षशिला " ततो भगवं विहरमाणो बहलीविसयं गतो, तत्थ बाहुबलीस्स रायहाणी तक्खसिला णामं । -- आवश्यक सूत्र नियुक्ति, पृष्ठ १८०-८१ उसभजिणस्स भगवो पुत्तस्यं चदसूरसरिसाणं । समणत्तं पडिवनं सए य देहे निखयखं ॥ तक्खसिलाए, महप्पा, बाहुबली तस्स निच्चपडिकूलो । भरर्नारदस्स सया न कुगइ आणा-पणा में सो ॥ अह रुट्ठो चक्कहरो, तस्सुवरि सयग साहण समग्गो । नयरस तुरियचवलो, विणिग्गओ सयलबल सहिओ ॥ पत्तो तक्खसिलपुरं जयसद्द घुट्ठ कलयला रावो । जुज्झस्स कारणत्थं सन्नद्धो तक्खणं भरहो ॥ बाहुबली वि महप्पा, भरहनरिदं समागयं सोउ । भडचडयरेण महया, तक्खसिलाओ विणिज्जाओ || " -- पउमचरियं, विमलसूरि, ४-३७-४१ 1. Modern review, August, 1932, Page 155-160. 2. ‘Hindu Civilisation' का हिन्दी अनुवाद - हिन्दू सभ्यता', पृ० २७५. ३. " नन्दराज नीतानि अग जिनस नग मह रतन पडिहारेहि अंग मागधे वसवु नेयाति । " हाथीगुम्फ शिलालेख, १२ वीं पंक्ति, देखिए जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग १६, किरण २, पृष्ठ १३४. और Dr. Boolchand Jain, 'Jainism in Kalingdesa', 'Jain cultural research society', Banaras Hindu University, Bulletin No. 7, P. 10. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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