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________________ १०९ हो गया । ग्यारहवीं सदी तक तो उत्तरी भारत में नागरी व्याप्त हो गई । उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल, राजपूताना में सभी जगह नागरी में अभिलेख तथा मुद्रालेख उत्कीर्ण किये गये।' गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में अनेक ग्रन्थ ताड़पत्र पर लिखे मिले हैं, जो देवनागरी में है । २ सातवीं शताब्दी के देवनागरी के प्राचीन अभिलेख उपलब्ध है । देवनागरी अर्द्धअक्षरात्मक लिपि है। इसमें अड़तालीस चिह्न हैं, जिनमें १४ स्वर एवं संध्यक्षर तथा ३४ मूलव्यञ्जन शामिल हैं। इन व्यञ्जनों को ही अक्षर कहते हैं । यह सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है, जिसके अक्षर में अ अन्तनिहित है। उसका पृथक उच्चारण नहीं होता। यह अंग्रेजी और फारसी दोनों लिपियों से अधिक पूर्ण और युक्तिसंगत है। इसमें भारत-आर्यायी भाषाओं में पाई जाने वाली प्रायः सभी ध्वनियों के लिए अलग-अलग चिह्न हैं । चिह्नों की ऐसी स्पष्टता न रोमन लिपि में है और न फारसी में ।३ अंग्रेजी और फारसी के सभी शब्दों को देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है, किन्तु संस्कृत और हिन्दी के सब शब्दों को रोमन और फारसी लिपि में नहीं लिखा जा सकता। इसी कारण स्वतंत्रता के बाद देवनागरी को राष्ट्रलिपि घोषित किया गया। कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस श्री शारदाचरण मित्र ने गत शताब्दी के अन्त में ही देवनागरी की राष्ट्रव्यापी सामर्थ्य की बात कही थी। आगे चल कर उसे राष्ट्रीय पद भी प्राप्त हुआ। डॉ. चटर्जी के शब्दों में देवनागरी का भारत की अन्य प्रान्तीय लिपियों से सहोदर बहनों या चचेरी बहनों का-सा सम्बन्ध है। बंगला-असमी, मैथिली उड़िया, गुरुमुखी तथा देवनागरी एक-दूसरे से इतने निकट रूप से सम्बद्ध हैं एवं एक-दूसरे से इतनी अधिक मिलती-जुलती हैं कि हम उन्हें एक ही लिपि की विभिन्न शैलियाँ तक कह सकते हैं। समूचे भारत में सभी लिपियाँ देवनागरी लिपि की स्वगोत्र या कौटुम्बिक लिपियाँ ही सिद्ध होती हैं। प्रसिद्ध डॉ. एस. एम. कत्रे ने देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक गठन तथा उसकी ऐतिहासिक महत्ता पर बल देते हुए उसे अपवाद के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उनके विचार से अन्य लिपियों के साथ देवनागरी की तुलना अनावश्यक है। उत्तरी और दक्षिणी भाषाओं की महान लिपियों के बीच में ही नहीं, भारतीय आर्य तथा द्रविड़ वर्गों की लिपियों के बीच में भी देवनागरी ने १. 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृष्ठ २५३. २. 'हिन्दी भाषा: उद्गम और विकास', पृष्ठ ५८४. ३. डॉ० सुनीतिकुमार चाटुा, भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, १६५७, पृष्ठ २३८. ४. वही, पृष्ठ २३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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