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________________ १०० लिपियों' का ज्ञान कराया जाता था। उनके अनुसार तक्षशिला में यूनानी भाषा और लिपि के विधिवत् अध्ययन की व्यवस्था थी। डा. वासुदेव उपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन' में लिखा है कि 'यवनानी का प्रयोग उत्तर-पश्चिम भारत (वर्तमान पश्चिमी पाकिस्तान) में होता था।" __ब्राह्मी के बाद, भारतीय अभिलेखों में खरोष्ठी का ही अधिक प्रयोग मिलता है। अशोक के दो शिलालेख-मनसेरा तथा शाहबाजगढ़ी (उत्तर-पश्चिम भारत पाकिस्तान) खरोष्ठी में लिखे मिलते हैं। ईरानी राजाओं ने उत्तरपश्चिमी भारत बहुत पहले जीत लिया था। उनके शासन लेख अथवा मुद्रा लेखों में खरोष्ठी का ही प्रयोग किया गया। मौर्यकाल के पश्चात् यूनानी शासकों ने (१७५ ई. पू.) भी खरोष्ठी का प्रयोग किया। उधर के भारतीय सम्राट तुंवर मिलिन्द के मुद्रालेख ख रोष्ठी में ही मिलते हैं। खरोष्ठी का प्रसार मध्य एशिया में हुआ था। वहाँ के शासन-लेख खरोष्ठी में प्राप्त हुए हैं। खोतान में यही लिपि खोतानी और तुषार में तोखारी के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह दायें से बायें लिखी जाती थी। विद्वान लोग इसकी उत्पत्ति उत्तरी सामी और आरमेनियन लिपियों से मानते हैं। खर श्राविता का शाब्दिक अर्थ है कि जो सुनने में कठोर हो। इस अनुमान के अतिरिक्त, इस लिपि के सम्बन्ध में और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार पकारादिका, जिसे प्राकृत में पहाराइआ अथवा पआराइआ कहते हैं, पकार से प्रारम्भ होने वाली लिपि मानी जा सकती है। वह यहाँ के किसी भूभाग की जाति विशेष में प्रचलित रही होगी। शायद सांकेतिक लिपि का नाम निन्हविका था। यह कतिपय विशेष संकेतों से बनी लिपि होगी। अंक और गणित लिपियाँ नाम से ही स्पष्ट हैं। गान्धर्व, भूत (भोट), आदर्श (देव), माहेश्वरी, द्राविड़ और पुलिंद लिपियाँ तन्तद् जातियों की लिपियाँ थीं। हो सकता है कि आज की काश्मीरी , भोटानी, पहाड़ी, मुड़िया, दक्षिणी और आदिवासी जातियों की भाषाओं के लिए ये लिपियाँ प्रचलित रही हों। एक पैशाची प्राकृत थी, जिसमें गुणाढ्य ने 'बृहत्कथा' की रचना की थी। आगे चलकर यह ग्रन्थ विलुप्त हो गया। उसका संस्कृत रूपान्तर मिलता है । पैशाची प्राकृत एक भाषा थी। वह भूतलिपि में लिखी गई हो, असम्भव नहीं है। बौद्ध ग्रन्थ 'ललितविस्तर' में चौंसठ लिपियों का नामोल्लेख हुआ है। वे नाम इस प्रकार हैं---ब्राह्मी, खरोष्ठी, पुष्करसारी, अंगलिपि, वंगलिपि, मगध१. 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृष्ठ २४४. २. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृष्ठ २४५, २४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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