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प्रस्तावना
भारतवर्ष के इतिहास में कलिङ्ग का स्थान अत्यंत ऊँचा और महत्वपूर्ण है। पुरातत्व, धर्म, दर्शन, स्थापत्य, संस्कृति, साहित्य, ललित कलाएं आदि सभी विषयों के संदर्भ में विचार के समय कलिङ्ग की उल्लेखनीय भूमिका को नकारना कदाचित संभव नहीं है। प्राचीन कलिङ्ग के इतिहास में जैनधर्मी महाराजा खारवेळ का शासन काल भारतीय इतिहास में भी एक स्वर्णिम काल है। आधुनिक ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर के समीपवर्ती उदयगिरि -खण्डगिरि में उत्कीर्णित शिलालेख और शिलांकन, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत तात्पर्यपूर्ण है।
यह शिलालेख “ हातीगुंम्फा अभिलेख" के नामसे प्रख्यात है । अज्ञात, अगोचर था, जिसे सबसे पहले लिपिविद जेमस् प्रिन्सेप ने ई. 1837 में देखा, उसका पाठोद्धार किया, जिससे मानों कलिङ्ग इतिहास का अवरुद्ध द्वार ही खुल गया । उस रुद्ध द्वार के उन्मुक्त होते ही अनेक विद्वानों ने अनथक परिश्रम से इसका पाठोद्धार और व्याख्याएं प्रस्तुत कर ग्रंथों में, ऐतिहासिक शोध संदर्भों के रूप में भिन्न भिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कर सुचिंतित तथा तर्कपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डालने की कोशिश की, पर वे ग्रंथ तथा पत्रिकाएं साधारण पाठकों के लिए दुर्लभ हैं।
खारवेळ और जैन धर्म के संबंध में पाठकों के लिए एक सरल तथा सुखपाठ्य ग्रंथ की रचना भी आवश्यक है इसी विचार से प्रख्यात कवि श्री श्रीनिवास उद्गाता ने मुझे प्रेरित किया, क्यों कि Orissan Palaeography ग्रंथ की रचना के लिये मैं तब दीर्घ काल से खारवेळ के अभिलेखों का अध्ययन कर रहा था। उन्हीं की प्रेरणा से मेरा सोनपुर इतिहास" दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका था।
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