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________________ भिन्न- भिन्न रंग और आकार की हैं। सभी अत्यंत मसृण और गुँथने के लिये उनके मध्य भाग में छिद्र भी है। इनमें उस काल के मानव का सौंदर्यबोध और कलात्मक अभिव्यक्ति निहित है। कुछेक अधबनी कंठियां भी मिली हैं। इससे समर्थित होता है कि प्राचीन काल में इस भांति की मालाएं यहां बनती थीं। इसी जगह से एक शिलालेख का खंडित टुकडा भी मिला है जो संग्रहीत होकर है। उसमें अंकित एक मात्र वर्ण को हमने “व" के रुप में पाठोद्धार किया है और हमारी राय में यह लिपि ईसवी चौथी सदी की गुप्तब्राह्मी है। इस क्षेत्र में यदि प्रत्नतात्विक भूखनन किया जाए तो ईं.पू. पांचवी सदी से ईसवी चौथी सदी की अवधि की एक उन्नत जन बसति का अवेशष होने की संभावना को नकारा नहीं जासकता। हमने इसी क्षेत्र को शुक्तिमती पुर के रूप में, इसी कारण से चिह्नित किया है। अभिचंद्र के पुत्र बसु चेदि राजवंश के एक प्रख्यात राजा थे। वैदिक वाङ्मय एवं दर्शन-शास्त्र में उनकी असाधारण बिद्वत्ता थी। वौद्धिक समस्यायों के समाधान के लिये उस समय के आर्य ऋषियों तक को उनकी मध्यस्थता की अपेक्षा थी। सम्राट खारवेळ ने अपने हाथीगुम्फा शिलोलख में जिस राजर्षि वसु के वंशोद्भव कह कर स्वयं को परिचित कराया है वे ही अभिचंन्द्र के पुत्र हैं (उपरिचित बसु)। चेदिराष्ट्र और कलिङ्ग दो प्रतिवेशी राज्य होने के कारण उनमें दीर्घकाल से निविड़ संबंध था। ई.पू. प्रथम शताब्दी के प्रारंभ में मगध में राजनैतिक दुर्बलता का सुअवसर पाकर चेदियों ने भारत के पूर्वांचल में शक्ति और प्रभाव संगठित करते लगे। उधर पश्चिमांचल में सातवाहन वंशी सिमुक, शक्तिशाली बनकर ई.पू. ७३ में मगध में सुंग-काण्व वंश के शासन का अंत किया। यह संभव है कि उस वैप्लविक परिवर्तन के समय चेदियों ने कलिंग में एक सुदृढ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003640
Book TitleKharvel
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadanand Agarwal, Shrinivas Udagata
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year1993
Total Pages136
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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