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विवरण से स्पष्ट रूपसे ज्ञात होता है कि अंतिम नंद राजा औग्रसैन्य (धननन्द) के समय केवल मात्रू गंगारिड़ाइ ही नंद साम्राज्य के अंतर्गत था। जब चंद्रगुप्त मौर्य ने अंतिम नंद राजा के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की तब राष्ट्र विप्लव का लाभ उठाते हुए, गंगारिडाइ कलिङ्ग भी नंद साम्राज्य से अलग होगया। चंद्रगुप्त मौर्य के ईसा पूर्व 322 में मगध सिंहासनारोहण के समय समग्र कलिङ्ग एकत्र संगठित होकर एक शक्तिशाली राज्य बन चुका था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि चंद्रगुप्त के उत्तर-पश्चिम में हिंदूकुश पर्वत से लेकर दक्षिण में आधुनिक महीशूर (मैसूर) तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लेने के बावजूद उन्होंने कलिङ्ग विजय के लिये कोई प्रयास किया नहीं था। ई.पू. 261 में सम्राट अशोक के कलिङ्ग-विजय के परिणाम स्वरूप आगंगा-गोदावरी विस्तृत सागर-तटवर्ती क्षेत्र मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित हुए। कलिङ्ग युद्ध की भयानक परिणति के कारण सम्राट अशोक ने गिरि-अरण्य-संकुल पश्चिमांचल का अधिकार करने की इच्छा नहीं की। मौर्य वंश के पतन के पश्चात् मगध पर सुंग और काण्ववंशी राजाओं ने शासन किया। नंद सम्राज्य के विलोपन के समय जिस भाँति कलिङ्ग को पराधीनता से मुक्त होने का साहस प्राप्त हुआ था, उसी भांति मौर्य शासन पतनोन्मुख काल में कलिङ्ग शौर्य प्रदर्शन में असफल रहा। ई.पू.प्रथम शताब्दी में सातवाहन वंशी राजा सिमुक ने सुंग-काण्व वंशी शासन का अंत कर विदिशा और उज्जयिनी क्षेत्र में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। लगभग उसी समय चेदि वंश ने भी कलिङ्ग में क्षमतासीन होकर एक स्वाधीन और शक्तिशाली राज्य की प्रतिष्ठा की थी। दो सदियों की सुदीर्घ अवधि की पराधीनता
और प्रभावहीनता के पश्चात् कलिङ्ग ने फिरसे जाग्रत होकर भारतीय राजनीति और संस्कृति के लिये अपनी महत्वपूर्ण भूमिका इतिहास में निभायी।
ऋग्वेद के वर्णन के अनुसार चेदि राजवंश क्षत्रिय कुलांतर्गत थे। महाभारत में भी इस वंश के सुयश गाथा लिपिबद्ध है। नि:संदेह
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