SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थ-जिन विशेष [५५] रसना तुज गुण संस्तवे, द्दष्टि तुज दर्शन, नव अंग पूजा समे, काया तुज फरशन...४ तुज गुण श्रवणे दो श्रवण, मस्तक प्रणिपाते, शुद्ध निमित्ती सविहुआ, शुभ परिणति थाते...५... विविध निमित्त विलासथीं, विलसे प्रभु एकांत, अवतरीयो अभ्यंतरे, निश्चल ध्येय महंत...६ भावदृष्टि मां भावता, व्यापक सवि ठामे, उदासीनता अवरशं, लीनो तुज नामे...७... दीठाविण जे देखवे, सुतां पण जगवे, अवर विषयथी छोडवे, इन्द्रिय बुद्धि त्यजवे...८... पराधीनता मिट गइ, भेद बुद्धि गइ दूर, अध्यातम प्रभु परिणम्यो, चिदानंद भरपूर...६.. पूजक पूज्य अभेदथी, कुण पूजे रूप, द्रव्य स्तव रह्यो द्रव्यरूप, एहीज शुद्ध स्वरूप...१०... आतम परमातम भयो, अनुभव रस संगते, दैत भाव मळ नीकल्यो, भगवंत नी भगते...११... आतम छंदे विलसता, प्रगट्यो वचनातीत, महानंद रस मोकळो, सकल उपाधि व्यतीत...१२... ज्योति से ज्योति मिल गइ, पर रहे निज अवधे, अंतरंग सुख अनुभव्यु, निज आतम लब्धे...१३... निरविकल्प उपयोग रूप, पूजा परमारथ, कारक ग्राहक एक छे, प्रभु चेतन समरथ...१४... वीतराग अम पूजतांओ, लही अविहड सुख, मानविजय उवज्झायना, नाठां सघळां दुःख...१५... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003633
Book TitleChaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAbhinav Shrut Prakashan
Publication Year
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy