________________ [है० 7.4.101.] विंशः सर्गः / 637 आगच्छ भोः कपिलक३ / नम कपिलक // गुरुवैकोनन्त्योपि लनृत् / व्रज दे. ३वदत्त / बिभृहि शिरसि देवद(३)त्त / उत्तिष्ठ क्ल(३)प्तशिख / प्रतिशृणु क्लृप्तशिख / अत्र “दूराद्०" [ 99 ] इत्यादिना वा प्लुतः // महाविभाषयैव प्लुतविकल्पे सिद्धे वाग्रहणं न विकल्पार्थ किं त्वन्त्यस्य प्लुतेन सह गुरोरसमावेशार्थम् / तेन क्ल३सशिख३ इति न स्यात् // अनृदिति किम् / साधय कृष्णमि ३त्र / कृसंबन्धिन ऋतो न प्लुतत्वम् // औपछन्दसकम् // 'हे३ देवदत्त चले है३ व्रज यज्ञदत्त गोविन्द हे३ त्वरय माधव है३ त्वरस्व / अन्योन्यमित्यभिदधद्भिरुपेत्य हर्षे.. णाकारि शिल्पिभिरथायतनद्वयं तत् // 97 // 97. स्पष्टम् // "हे३ देवदत्त चल। गोविन्द हे३ त्वरय / है३ व्रज यज्ञदत्त / माधवें है। त्वरस्व / इत्यत्र "हेहैप्वेषामेव" [ 100 ] इति यत्रतत्रस्थयोर्हेहैशव्दयोरन्त्यः स्वरः प्लुतो वा // वसन्ततिलका // युष्मान्भो अभिवादये भव जयी भो३ एधि जैनश्च भो युष्मानप्यभिवादये सुकृतवान्भूयाः कुमार३ भव / / आयुष्मांश्च कुमारपाल चिरमित्याशंसितोत्रार्हतै। चैत्यं स्फाटिकपार्श्वबिम्बमकृत स्वर्णेन्द्रनीलैनृपः // 98 // 98. नृपो भैमिः स्फाटिकं स्फटिकमयं पार्श्वबिम्ब श्रीपार्श्वनाथप्र१ बी हे दे. 2 ए बी ल हे३ व्र. 3 बी व हे३ त्व. 4 सी 'नस्वभोश्च. .5 ए तोवाहतैश्चेत्यं स्फटि. 1 बी नमः क. 2 बी ख ई. 3 सी 'मित्र. 4 बी हे दे. 5 ए व हे३ त्व. 6 बी रय / इ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org