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________________ ५७. अवसेसा सुवण्णकुमारादी जाव थणियकुमारा एए अट्ठ वि उद्देसगा ५८. जहेव नागकुमारा तहेव निरवसेसा भाणियव्वा । (श०२४।१६१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० २४।१६२) सुपर्णकुमार स्यूं स्तनितकुमार तक नागकुमारवत, ५ ठिकाणां नों मधिकार' ५७. शेष जे सुवन्नकुमार नें, आदि देई सूविशेष । जाव थणित लग जाणवा, ते पिण अष्ट उद्देश ।। ५८. वक्तव्यता जिम नाग नी, तिम कहिवं निरवसेस । सेवं भंते! स्वाम जी, एकादशमों उद्देस ।। वा०--युगलियो मनुष्य असुर में जाय तो भव जघन्य-उत्कृष्ट २ । णाणत्ता जघन्य गमे ३-अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट ५०० धनुष्य जाझी १ । आउखो पूर्व कोड जाझेरो२। अनुबंध आउ जेतो ३ । उत्कृष्ट गमे ३-अवगाहना जघन्य-उत्कृष्ट ३ गाऊ १। आउ जघन्य-उत्कृष्ट ३ पल्य २ । अनुबंध आउ जेतो ३। युगलियो तिर्यच असुर में जाय तेहनां भव जघन्य-उत्कृष्ट २। णाणत्ता ३- अवगाहना जघन्य पृथक धनुष्य, उत्कृष्ट १००० धनुष्य जाझी १, आउखो पूर्व कोड़ जाझेरो २, अनुबंध आउ जेतो ३ । उत्कृष्ट गमे २-आउखो तीन पल्य नों १ अनुबंध आउ जेतो २ । संख्यात वर्षायु सन्नी तिथंच असुर में जाय तेहना भव जघन्य २, उत्कृष्ट ८ । जघन्य गमे णाणत्ता ८ नारकीवत । पिण इहां अध्यवसाय भला कहिवा । उत्कृष्ट गमे २-आउखो कोड़ पूर्व १, अनुबंध आउ जेतो २ । कर्मभूमि नां सन्नी मनुष्य असुर में जाय तेहनां भव जघन्य २, उत्कृष्ट ८ । जघन्य गमे णाणत्ता ५-अवगाहना जघन्य-उत्कृष्ट पृथक आंगुल नी १, तीन ज्ञान अन तीन अज्ञान नी भजना २, समुदघात पांच पहली ३, जघन्य-उत्कृष्ट आउ पृथक मास ४, अनुबंध आउ जेतो ५। उत्कृष्ट गमै ३-अवगाहना जघन्य-उत्कृष्ट पांच सौ धनुष्य नी १। आउ जघन्य-उत्कृष्ट कोड़ पूर्व नों २ । अनुबंध आउ जेतो ३ । एवं नवनिकाय नां ठिकाणा १, गमा २, नाणत्ता ३–एतला बोल असुर कुमार नी पर जाणवा । ५९. च्यारसौ – उगणीसमी, आखी ढाल रसाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। चतुविशतितमशते आचतुर्थादेकादशोद्देशकार्थः ॥२४॥४-११॥ ढाल : ४२० दहा १. अथ हिव पृथ्वीकाय नों, द्वादशमों उद्देश । अर्थ थको कहियै अछ, सांभलजो सुविशेष ।। २. पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! किहां थकी ऊपजंत ? स्यूं नारक थी ऊपजै, तिरि मनु सुर थी हुँत ? ३. जिन भाखै नारक थकी, पृथ्वी में नहिं हंत । __ तिरि मन सर थी ऊपज, वलि गोतम पूर्छत ।। १. परि० २, यंत्र २१-२५ ७८ भनवती जोड़ २. पुढविक्काइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति-- कि नेरइएहितो उववज्जति ? तिरिक्खजोणियमणुस्स-देवेहितो उववज्जति ? ३. गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवेहितो उववज्जति । (श• २४११६३) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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