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असुरकुमार में संख्याता वर्ष नों सन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय ऊपज, तेहनों अधिकार' ९८. जो वर्ष संख्यायुष सन्नी पंचेंद्रिय, जाव असुर में जाय बे ।
स्यूं जलचर थी ऊपजै प्रभुजी ! एवं जाव कहाय बे॥
९८. जइ संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए
हिंतो उववज्जंति -कि जलचरेहिंतो उववज्जति ? एवं जाव
(श० २४११३१) ९९. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए
णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए, १००. से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु,
९९. पजत्त संख्यात वर्षाय सन्नी पं. तिर्यंचयोनिक तेह बे।
ऊपजवा ने जोग्य अछै जे, असुरकुमार विषेह बे ।। १००. किता काल स्थितिक विषे ते प्रभु! ऊपजै?
जिन कहै गोयम ! तेह बे। जघन्य थकी दश सहस्र वर्ष नों, ..
स्थितिक विषे उपजेह बे ।। १०१. उत्कृष्टी साधिक सागर नीं, स्थितिक विषे उपजंत बे।
__ असुर उत्तर दिशि वलि निकायज, तेह आश्रयी मंत बे॥
१०१. उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा।
(श० २४।१३२) 'उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमद्वितीएसु' त्ति यदुक्त
तद्वलिनिकायमाश्रित्येति (वृ० प० ८२०) १०२. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ?
एवं एतेसि रयणप्पभपुढविगमगसरिसा नव गमगा
नेयव्वा, १०३. नवरं जाहे अप्पणा जहण्णकालठितीओ भवइ ताहे
गमएसु, इमं
नाणत्तं-चत्तारि
१०४. तिसु वि
लेस्साओ।
१०२. ते एक समय प्रभु ! किता ऊपजै?
इम एहने पहिछाण बे। रत्नप्रभा नांगमा सरीखा, गमा नवं ही जाण बे।। १०३. णवरं एतलो विशेष कहीजे,
जघन्य स्थितिक हुओ आप बे । तुर्य पंचम नैं षष्ठम गमके, जघन्य काल स्थिति स्थाप बे ।। १०४. ए तीनइ गमा विषे इम, कह्या णाणत्ता एह बे। लेश्या च्यार कहीजै तिणमें, तास न्याय इम लेह बे ।।
सोरठा १०५. रत्नप्रभा रै मांहि, जाणहार जघन्यायु जे।
सन्नी तिरि में ताहि, लेश्या तीन कही तिहां ॥ १०६. इहां लेश्या चिउं मंत, तेजु लेश्यावंत पिण।
__ असुर विषे उपजंत, ते माटै ए णाणत्तो।। १०७. * अध्यवसाय पसत्थ कह्या तसु,
पिण अपसत्थ नहीं आय बे। द्वितीय णाणत्तो तिर्यंच माहै, हिव कहियै तसु न्याय बे।।
१०५,१०. 'चत्तारि लेसाओ' ति रत्नप्रभापृथिवीगामिना
जघन्यस्थितिकानां तिस्रस्ता उक्ताः एषु पुनस्तारचतस्रः असुरेषु तेजोलेश्यावानप्युत्पद्यत इति ।
(वृ० प० ८२१)
१०७. अज्झवसाणा पसत्था, नो अप्पसत्था।
सोरठा
१०८,१०९. तथा रत्नप्रभापृथिवीगामिनां जघन्यस्थिति
कानामध्यवसायस्थानान्यप्रशस्तान्येवोक्तानि इह तु प्रशस्तान्येव ।
(वृ• प० ८२१)
१०८. रत्नप्रभा रै मांय, जाणहार धुर स्थितिक नां।
माठा अध्यवसाय, भला न आवै तिण भवे। १०९. इहां भलाहिज ख्यात, जघन्यायु तिरि नै विषे ।
अप्रशस्त नहि पात, अद्धा अल्पपणां थकी ।। ११०. दीर्घ स्थितिक तिरि जोय, जाणहार जे असुर में।
प्रशस्त अप्रशस्त होय, अल्प स्थितिक नां शुभ हुवै ।
११०.दीर्घस्थितिकत्वे हि द्विविधान्यपि संभवन्ति न वितरेषु कायस्याल्पत्वात् ।
(वृ०प० ८२१)
*लय : धन प्रभु रामजी १. परि० २. यंत्र १८
श• २४, उ०२, ढा० ४१६ ५९
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