________________
१२०. उत्कृष्ट पूर्व कोड़, मनुष्य तणों जे आउखो।
ते चिउं भवे सुजोड़, च्यार कोड़ पूर्व अद्धा ।। १२१. *एतलो काल सेवै ते जंतु, करै गति आगति इतो कालो।
ओधिक नै ओधिक गमक ए, दाख्यो प्रथम दयालो ।। १२२. इम ए ओधिक धुर त्रिण गमके, पाछे कही ते भणवी।
मनुष्य लद्धी परिमाण संघयणादि, तसु प्राप्ति तिम थुणवी।। १२३. नानापणुं ते भेद कह्य ए, नारकि स्थिति रै मांह्यो।
वलि काल आश्रयी कायसंवेधज, फरक तास कहिवायो ।।
१२१. एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति
करेज्जा। १२२. एवं एसा ओहिएसु तिसु गमएसु मणूसस्स लद्धी ।
१२३. नाणत्तं-नेरइयट्ठिति कालादेसेणं संवेहं च जाणेज्जा
(श० २४११०६)
सोरठा १२४. इहां प्रथम गमा रै मांहि, नारकि नी स्थित्यादि जे।
पर्वे काज ताहि, द्वितीय तृतीय गम हिव कह्य ।। १२५. द्वितीय गमे इम जाण, ओधिक जघन्यायु विषे ।
इहां नारकि स्थिति माण, इक सागर जघन्योत्कृष्ट ।।
१२४. तत्र प्रथमगमे स्थित्यादिकं लिखितमेव ।
(वृ० प० ८१७) १२५. द्वितीये त्वौधिको जघन्यस्थितिष्वित्यत्र नारकस्थितिर्जघन्येतराभ्यां सागरोपमं ।
(व०प० ८१७) १२६,१२७. कालतस्तु संवेधो जघन्यतो वर्षपृथक्त्वाधिक
सागरोपममुत्कृष्टतस्तु सागरोपमचतुष्टयं चतु: पूर्वकोट्यधिकं ।
(वृ० प० ८१७)
१३१,१३२. सो चेव अप्पणा जहण्णकाल द्वितीओ जाओ,
तस्स वि तिसु वि गमएसु एस चेव लद्धी।
१२६. काल थकी संवेध, जघन्य थकी वर्ष पृथक करि ।
सागर एक प्रबेध, बे भव अद्धा जघन्य ए॥ १२७. उत्कृष्ट अद्धा एह, चिउं सागर चिउं कोड़ पूव्व ।
अठ भव काल कहेह, तिण में नारकि जघन्य स्थिति ।। १२८. तृतीय गमे पहिछाण, ओधिक उत्कृष्ट स्थिति विषे ।
इहां नारक स्थिति जाण, त्रिण सागर जघन्योत्कृष्ट ।। १२९. काल थकी संवेध, जघन्य थकी वर्ष पृथक करि ।
सागर तीन प्रबेध, बे भव अद्धा जघन्य ए। १३०. उत्कृष्ट अद्धा जाण, बार उदधि चिउं कोड़ पूव । अठ भव काल पिछाण, इहां बिहुं भव उत्कृष्ट स्थिति ।।
__जघन्य ओघिक [४] १३१. *पजत्त संख्यात वर्षायु सन्नी मनु, जघन्य स्थितिक छै जेहो।
ऊपजवा जोग्य सक्करप्रभा में, नारकी ने विषे तेहो।। १३२. तेह जघनीया तीन गमा विषे,
जघन्य मनुष्य स्थिति मांह्यो। एहिज लब्धि परिमाणादि प्राप्ति,
धुर त्रिण गम जिम थायो।। १३३. णवरं तीन णाणत्ता कहिय, तनु अवगाहन जाणी। जघन्य अनें उत्कृष्ट थकी पिण, पृथक हाथ पिछाणी ।।
सोरठा १३४. धुर गम कही ओगाण, उत्कृष्टी धनु पंच सौ।
इहां पृथक कर जाण, ते माटै ए णाणत्तो।। १३५. *स्थिति जघन्य थो पृथक वर्ष नीं, उत्कृष्टी पिण संध ।
पृथक वर्ष तणी ए आखी, एतोइज अनुबंध ।। *लय : राजा राघव रायां रो राय कहायो १. अवगाहना
रयणिपुहत्तं,
१३३. नवरं–सरीरोगाहणा जहण्णेणं
उक्कोसेण वि रयणिपुहत्तं ।
१३५. ठिती जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि बासपुहत्तं ।
एवं अणुबंधो वि।
श० २४, उ०१, ढा०४१५ ४५
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org