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८७. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ?
एवं सो चेव चउत्थो गमओ निरवसेसो भाणियव्वो ८८. जाव कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्त
मन्भहियं, ८९. उक्कोसेणं चत्तारि सागरोबमाई चाहिं अंतोमुहुत्तेहि
अब्भहियाई,
८७.ते एक समय प्रभु ! किता ऊपजै? इत्यादिक सहु जाणी।
तुर्य गमक ए सन्नी तणों जिम, भणवो सब पिछाणी ।। ८८. जाव काल आश्रयी जघन्य थी, नारक सागर एको ।
अंतर्महर्त सन्नी तिर्यंच भव, जघन्य उभय भव लेखो। ८९. उत्कृष्ट अद्धा च्यार सागर फुन,
नारक चिउं भव भणियै । अंतर्महुर्त च्यार अधिक ए,
चिउं तिरि भव स्थिति गिणिय ।। ९०. एतलो काल सेवै ते जंतु, करै गति आगति इतो कालो । जघन्य अनें उत्कृष्ट गमक ए, दाख्यो षष्टम दयालो ।।
उत्कृष्ट नै ओधिक (७) वा० -हिवै उत्कृष्ट नै ओधिक --ते सन्नी तिर्यंच नों तो उत्कृष्टो आउखो, नारकी नै विषे ओघिक-ए सप्तम गमक कहै छै
९०. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ६।
(श० २४१७१)
वा०-'उक्कोसकाले' त्यादिस्तु सप्तमः ७, तत्र च 'एएसिं चेव पढमगमों' त्ति एतेषामेव सञ्जिनां प्रथमगमो यत्रोधिक औषिकेषूत्पादितः,
(बु. ५० ८१२) ९१. उक्कोसकालद्वितीयपज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णि
पंचिदियरिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयण
प्पभापुढविनेरइएसु उवज्जित्तए, ९२. से णं भंते ! केवतियकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहणेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं
सागरोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। (श० २४१७२) ९३. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ?
अवसेसो परिमाणादीओ भवादेसपज्जवसाणो ९४. सो चेव पढमगमओ नेयम्वो,
६१. जेष्ठ काल स्थितिक पजत संख वर्षायुष,
सन्नी पंचेंद्री तिरि जेहो। रत्नप्रभा पृथ्वी नै विषे जे, ऊपजवा जोग्य नेरइयापणेहो। ९२. किता काल स्थितिक विषे ते प्रभु ! ऊपजै?
जिन कहे जघन्य सुपेखो। ऊपजे दश सहस्र वर्ष स्थितिक में, उत्कृष्ट सागर एको ।। ९३. ते एक समय प्रभु ! किता ऊपजै ? शेष सर्व ही जाणी।
परिमाण आदि देई भव आश्रयो, एतला लगै पिछाणी ।। ९४. एहिज सन्नी पंचेंद्री तियंच नों धुर गम,
कह्यो ओधिक नैं ओघीको। तेहने विषे ऊपजाव्या तेहिज, कहिवो सर्व सधीको ।। ९५. णवरं स्थिति आउखो तेहनों, जघन्य पूर्व कोड़ जाणी।
उत्कृष्टी पिण कोड़ पूर्व नों, अनुबंध पिण इम ठाणी ।। ९६. शेष तिमज धुर गमे कह्यो जिम, काल आश्रयी तासो।
जघन्य पूर्व कोड़ तिरि भव आयु, नरक सहस्र दश वासो॥ ९७. उत्कृष्ट अद्धा च्यार सागर ए, नारक चिउं भव न्हालो।
च्यार पूर्व कोड़ तिर्यंच भव चिउं, ए अठ भव स्थिति कालो।। ९८. एतलो काल सेव ते जंतु, करै गति आगति इतो कालो ।। उत्कृष्ट ने ओधिक गमक ए, दाख्यो सप्तम दयालो ।।
उत्कृष्ट नै जघन्य [८] वा०-ते सन्नी तिर्यच नों उत्कृष्ट आउखो अनं नारक ने विषे जघन्य आउखापणों ऊरनों-ए अष्टम गमक कहै छ९९. तेहिज जेष्ठ स्थितिक पजत्त संख वर्षायुष,
सन्नी पंचेंद्री तिरि जेहो। ऊपजवा जोग्य रत्नप्रभा में,
जघन्य स्थितिक नेरइयापणेहो।।
९५. नवरं-ठिती जहण्णे णं पुब्वकोडी, उक्कोसेण वि
पुवकोडी । एवं अणुबंधो वि, ९६. सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहण्णेणं पुब्बकोडी दसहि
वाससहस्सेहिं अन्भहिया, ९७. उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुत्वकोडीहिं
अब्भहियाई, ९८. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतिय कालं गतिरागति करेज्जा ७।
(श० २४१७३)
वा०-'सो चेवे' त्या दिरष्टमः ८, इह च 'सो चेव' त्ति स एवोत्कृष्टस्थितिक: सज्ञी ८,
__(वृ० ५० ८१२) ९९,१००. सो चेव जहण्णकालद्वितीएसु उववण्णो जहण्णेणं
दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं वि दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा।
(श० २४१७४)
श० २४, उ०१, ढा०४१३ २५
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