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तिरि ।
कल्प लग ऊपजै ॥ अवगाहन आंगुल तणों। उत्कृष्ट पृथक धनुष्य नीं ॥ ऊपजता धुर कल्प बे । ऊपजता नें लेश पंच ॥
अज्ञान थे। कह्या भला ॥ उत्कृष्ट ही।
१४६. संख
जेह,
वर्षायु सौधर्मादि विषेह, ब्रह्म १४७. जघन्य गमेज आठ, असं भाग र बाट १४८. लेश्या च्यारज पाय, सनत आदि त्रिण मांय, १४९ दृष्टि तिरिक्ख में दोय, दोय ज्ञान समुद्घात त्रिण होय, अध्यवसाय १९५०. आयु ने अनुबंध जपन्य अने अंतर्मुहूर्त्त संध, जघन्य गमे अठ १५१. उत्कृष्ट गमके दोय,
जघन्योत्कृष्ट सुजोय, १५२. कादि
आयू फुन कोड़ पूर्व तिरि-पं.
पंचेंद्रिय पंचेंद्रिय मन्त्री
णाणत्ता ॥
अनुबंध हो । नों जिन का ॥ सन्नी नहि जाणतो ॥
ऊपजै ।
सहस्सार,
लेश्या नों
सात जाणत्ता धार १५३. उत्कृष्ट गमके दोय, आयू नें अनुबंध फुन । जघन्योत्कृष्ट सुहोय, कोड़ पूर्व नौ आखियो || नों १५४. सम्मी मनु संख्याय, सौधर्म नं ईशाण में । ऊपजतां नें पाय, जघन्य गमे पंच णाणत्ता || १५५. पूर्वक अंगुल अवगाह, भजना ज्ञान अज्ञान त्रिण। समुद्घात पंच ता पृथक मास अनुबंध स्थिति ॥ १५६. उत्कृष्ट गमके तीन, अवगाहन जघन्योत्कृष्ट । धनुष्य पंच सय चीन, आयु अनुबंध कोड़ पुब्व ॥ १५७ सनतकुमारज आदि, विमान प्यार अनुत्तरे ।
मनू ऊपजतां लाधि, जपन्य गमे त्रिण णाणता ॥ १५८. जघन्योत्कृष्ट अवगाह, पृथक हस्त तणीं कही ।
आयु अनुबंध ताह, पृथक वर्ष जघन्योत्कृष्ट ।। १५९. उत्कृष्ट गमके तीन, अवगाहन जघन्योत्कृष्ट ।
धनुष्य पंच सय चीन, आयु अनुबंध कोड़ पुव्व ॥ १६० सम्बद्धसिद्ध रे मांहि, जपन्य स्थितिक मनु ऊर्ज ।
तीन णाणत्ता ताहि, धुर गम तणी अपेक्षया ॥
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वा०- मनुष्य मरी नैं सर्वार्थसिद्ध में ऊपजं, तेहने विषे पहिला तीन गमा
हिज हुवे । इहां जघन्य स्थिति नां अभाव थी मध्यम तीन गमा न हुवै। अन उत्कृष्ट स्थिति नां अभाव थी छेहला तीन गमा पिण न हुवे । तिहां अजघग्योत्कृष्ट तेतीस सागर नीं स्थिति मार्ट तेहने अधिक कहिये ते मार्ट प्रथम तीन गमा हुने दम पूर्वे वृत्तिकार कहा तिज से मनुष्य गरी सर्वार्थसिद्ध विषे ऊपजै, तेहनां तीन गमा ए हुवै ओधिक नैं अधिक, जघन्य ने ओधिक, उत्कृष्ट नैं अधिक ए लौकिक केहण मार्ट पहिलो, चोथो अर्ने सातमो गमक हुवै इहां जघन्य गमे णाणत्ता ३, उत्कृष्ट गमे णाणत्ता ३ हुवै । अनं कोटा वाला यंत्र नै विषेक मनुष्य सर्वार्थसिद्ध नै विषे ऊपजै, तेहनां ३ गमातीजो, छठो, नवमो गमो हुवै ।
१६१. जपन्योत्कृष्ट अवगाह, पृथक हस्त तणीं हस्त तणीं आयु अनुबंध ताह, पृथक वर्ष जपन्योत्कृष्ट ||
कही ।
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श० २४, उ० २४, ढा० ४३२
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