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४५. सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छा
दिट्ठी।
४६. 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' त्ति मिश्रदृष्टिनिषेध्यो
जघन्यस्थितिकस्य तदसम्भवादजघन्य स्थितिकेषु
दृष्टित्रयस्यापि भावादिति, (वृ० प० ८५१) ४७. दो नाणा दो अण्णाणा नियमं । 'सेसं तं चेव' १-९।
(श० २४।३४२)
समस्या
४५. सम्यकदृष्टि हुवै तिको, मिथ्यादष्टि पिण होय जी। मिश्रदृष्टि नहिं हजिको, जघन्य स्थितिक थकी जोय जी।
___ सोरठा ४६. जघन्य स्थितिक तिरि मांय, मिश्रदष्टि पावै नथी।
दृष्टि त्रिहुं पिण थाय, अजघन्य आयुवंत में।। ४७. *सम्यकदृष्टि रै नियमा बे ज्ञान नी,
मिथ्यादष्टि तणे जोय जी। नियमा है दोय अज्ञान नीं, शेष तिमहीज अवलोय जी ।।
सोरठा ४८. जघन्य स्थितिक तिरि मांय, ज्ञान तथा अज्ञान बे ।
अवधि विभंग न पाय, तिण सू नियमा बे तणीं ।। ४९. *मनुष्य थकी जो ऊपजै, भेद जिम जोतिषी मांय जी ।
ऊपजता थकां मैं कह्यो, तिम इहां पिण कहिवाय जी। ५०. जाव असंख वर्षायुष, सन्नी मनुष्य छै जेह जी।
ऊपजवा नै योग्य छै, सौधर्म देवपणेह जी?
पहल देवलोक में मनुष्य युगलियो ऊपज, तेहनों अधिकार' ५१. इम हिज असंख वर्षायुष, सन्नी पंचेंद्रिय तिर्यंच जी।
सोहम्मे ऊपजता तणां, सप्त गमा कह्या संच जी ।। ५२. तिमहिज सप्त गमा इहां, णवरं बे धुर गम मांय जी। ओगाहण जघन्य गाऊ तणों, उत्कृष्ट गाऊ त्रिण पाय जी ।।
सोरठा ५३. तिहां युगल तिरि इष्ट, जघन्य पृथक धनु नीं कही।
षट गाऊ उत्कृष्ट, इहां गाऊ इक तीन नी ।।
४८. तथा ज्ञानादिद्वारेऽपि द्वे ज्ञाने वा अज्ञाने वा स्यातां,
जधन्यस्थितेरन्ययोरभावादिति। (वृ० प० ८५१) ४९. जइ मणुस्सेहितो उववज्जति ? भेदो जहेव जोति
सिएसु उववज्जमाणस्स, ५०. जाव
(श० २४॥३४३) असंखेज्जवासाउयसण्णिमणस्से णं भंते ! जे भविए सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववज्जित्तए ? ५१. एवं जहेव असंखेज्जवासाउयस्स सण्णिपंचिदिय
तिरिक्ख जोणियस्स सोहम्मे कप्पे उववज्जमाणस्स ५२. तहेव सत्त गमगा, नवरं-आदिल्लएस दोसु गमएसु
ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाई।
५३. आधगमयोहि सर्वत्र धनु पृथक्त्वं जघन्यावगाहना
उत्कृष्टा तु गव्यूतषट्कमुक्ता इह तु 'जहन्नेणं गाय' मित्यादि,
(वृ० प०८५१) ५४. ततियगमे जहण्णेणं तिण्णि गाउयाई. उक्कोसेण वि
तिण्णि गाउयाइं।
५५. तृतीयगमे तु जघन्यत उत्कर्षतश्च षट् गव्यतान्युक्तानि इह तु त्रीणि,
(वृ० प० ८५१) ५६ चउत्थगमए जहणणं गाउयं, उक्कोसेण वि गाउयं ।
५४. *तृतीय गमा नै विषे वलि, जघन्य अने उत्कृष्ट जी। तीन गाऊ नीं अवगाहना, श्री जिन वचन ए श्रेष्ठ जी।
सोरठा ५५. तिहां जघन्य उत्कृष्ट, आखी षट गाऊ तणीं।
इहां गाऊ त्रिण इष्ट, जघन्य अनै उत्कृष्ट थी ।। ५६. *तुर्य गमा ने विषे वली, जघन्य अने उत्कृष्ट जी।
एक गाऊ नी अवगाहना, अंतर बे गम इष्ट जी ।। वा०-इहां पांचमों, छठो गमो, चउथा गमा नै अंतरगत जाणवो ।
सोरठा ५७. तिहां धनु पृथक जघन्य, उत्कृष्ट बे गाऊ तणीं ।
इहां इक गाऊ जन्य, जघन्य अनें उत्कृष्ट थी। *लय : मम करो काया माया १. देखें परि. २, यंत्र १५४
५७. चतुर्थे गमे तु प्राग् जघन्यतो धनुष्पृथक्त्वमुत्कर्षतस्तु द्वे गव्यूते उक्ते इह तु जघन्यत उत्कर्षतश्च गव्यूतम,
(वृ० ५.८५१)
श० २४, उ. २४, ढा. ४३२
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