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________________ २८. ओगाहणा जहण्णेणं धणपहत्तं, उक्कोसेणं दो गाउयाई। वा०-'जहन्नेणं धणहपुहुत्तं' ति क्षुद्रकायचतुष्पदापेक्षं 'उक्कोसेणं दो गाउयाई' ति यत्र क्षेत्रे काले वा गव्यूतमाना मनुष्या भवन्ति तत्सम्बन्धिनो हस्त्यादीनपेक्ष्योक्तमिति । (वृ०प० ८५१) २९. ठिती जहण्णेणं पलिओवम, उक्कोसेण वि पलि ओवमं । ३०. कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेण वि दो पलिओवमाई, एवनियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ४-६ । (श० २४१३४०) २८. अवगाहना तसु जघन्य थी, पृथक धनुष्य नी पेख जो । उत्कृष्ट दोय गाऊ तणी, युगल गज आदि सुविशेख जी। वा०–ए जघन्य पृथक धनुष्य ते लघु काया नों धणी चतुष्पद युगलिया नीं अपेक्षाए । अनै उत्कृष्ट बे गाऊ नी ते जे क्षेत्र नै विष तथा जे काल नै विषे मुगलिया मनुष्य नी एक गाऊ नी अवगाहना हुवै ते संबंधी हस्त्यादिक प्रत आश्रयी उत्कृष्ट बे गाऊ नी कहिवी । एतले जे क्षेत्र तथा ते काले मनुष्य तिर्यच नों एक पल्य नों आउखो हुदै, तिवारै मनुष्य नी तो एक गाऊ नी अवगाहना, गज प्रमुख युगलिया नी बे गाऊ नीं अवगाहना हुवं, ते तिर्यंच एक पल्य स्थितिक बे गाऊवंत इहां ग्रहण कियो। २९. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट थी, एक पल्योपम होय जी। ए जघन्य गमो धुर कल्प में ऊपजवा योग्य जोय जी। ३०. काल आदेश करिने तिको, जघन्य अनै उत्कृष्ट जी। दोय पल्योपम जाणवो, ए गति-आगति इष्ट जी।। सोरठा ३१. इक पल्य तिरि भव इष्ट, इक पल्य सोहम्म सुर स्थिति । जघन्य अनै उत्कृष्ट, दोय पल्य इम जाणवू ।। ३२. जघन्य त्रिण गम जोय, तेह विषे ए इक गमो। जुगल जोतिषी होय, तेह तणीं पर जाणवू ।। ३३. *तेहिज आपण थयो, उत्कृष्ट आउखावंत जी। प्रथम गमक सरीखा तिहां, चरम गमा त्रिहुं हुंत जी ।। ३४. णवरं स्थिति अथवा वली, काल आदेश पहिछाण जी। उपयोगे करि जाणवो, वारू है जिनवर वाण जी । सोरठा ३५. युगल तिरिक्ख नी जाण, जघन्य अनैं उत्कृष्ट थी। स्थिति तीन पल्य माण, देव तणी स्थिति हिव कहूं ।। ३६. सप्तम गमे उप्पन्न, ओधिक स्थितिक नै विषे । अष्टम गमे सजन्न, जघन्य स्थितिक सुर में विषे ।। ३७. नवम गमे पहिछाण, उत्कृष्ट स्थितिक ने विषे । काल आश्रयी जाण, कहिये हिव संवेध प्रति । ३८. सप्तम गम संवेह, जघन्य थकी पल्य च्यार नों। त्रिण पल्य युगल भवेह, इक पल्य सोहम्म सुर स्थिति ।। ३९. उत्कृष्ट अद्धा संच, षट पल्योपम बिहुं भवे । त्रिण पल्य युगल तिर्यंच, त्रिण पल्य सोहम्म सुर स्थिति ।। ४०. अष्टम गम संवेह, जघन्य नै उत्कृष्ट थी। च्यार पल्योपम जेह, त्रिण पल्य तिरि इक पल्य सुरे ।। ४१. नवम गमे संवेह, जघन्य अनै उत्कृष्ट थी। षट पल्योपम जेह, त्रिण पल्य तिरि त्रिण पल्य सुरे ।। ए असंख्यात वर्षायु सन्नी तिर्यच सौधर्म ऊपज, तेहना ७ गमा कह्या । ३३. सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीओ जाओ, आदिल्लगमगसरिसा तिण्णि गमगा नेयव्वा, ३४. नवरं-ठिति कालादेसं च जाणेज्जा ७-९ । (श० २४१३४१) *लय : मम करो काया माया __ श० २४, उ० २४, ढा० ४३२ १९५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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