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________________ १२. जहा तहिं अंतोमुहुत्तेहिं तहा इहं मासपुहुत्तेहिं संवेहं करेज्जा। १२. *जिम तिहां अंतर्मुहर्त करी जी कांइ, तेम इहां कहिवेह । मास पृथक करिने वली जी काइ, करिवू कायसंवेह जी कांइ ।। सोरठा १३. रत्नप्रभा थी जेह, ऊपजता पं.-तिरि विषे । __ अंतर्मुहूर्त करेह, जिम कीधो संवेध त्यां ।। १३. यथा तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यगुद्देशके रत्नप्रभानारकेभ्य उत्पद्यमानानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त स्थितिकत्वादन्तर्मुहतः संवेधः कृतः (व० प० ८४५) १४. तथेह मनुष्योद्देशक मनुष्याणां जघन्यस्थितिमाश्रित्य मासपृथक्त्वैः संवेधः कार्य इति भाव (वृ०प० ८४५) १५. 'कालादेसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई मासपुहुत्त मन्भहियाई' इत्यादि । (व०प० ८४५) १४. तिम इहां मनुष्य विषेह, ऊपजता धुर नारकी। पृथक मास करेह, करिवो कायसंवेध प्रति ॥ वा०-जिम निहां पंचेंद्रिय तिथंच उद्देशक नै विषे रत्नप्रभा नारकी ऊपजतां पचेंद्रिय तिर्यंच ने जघन्य अंतर्मुहूर्त स्थितिकपणां थकी अंतर्मुहूर्त करिकै संवेध कीधो। तिम इहां मनुष्य उद्देशक नै विषे मनुष्य नै जघन्य स्थिति प्रत आश्रयी पृथक मास करिकै संवेध करिवो इसो भाव ।' १५. फुन कालादेशेन, धुर गम अद्धा जघन्य थी। वर्ष सहस्र दश येन, मास पृथक फून अधिक ही। १६. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। कहियै सागर च्यार, कोड़ पूर्व चिउं अधिक ही ।। १७. बीजे गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। ___ वर्ष सहस्र दश जेह, मास पृथक फुन अधिक ही। १८. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। कहिये सागर च्यार, पथक मास चिउं अधिक फुन ।। १९. तीजे गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। वर्ष सहस्र दश जेह, कोड़ पूर्व फुन अधिक ही ।। २०. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। कहिये सागर च्यार, कोड़ पूर्व चिउं अधिक ही। २१. चउथे गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। वर्ष सहस्र दश जेह, पृथक मास फुन अधिक ही। २२. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। ____ वर्ष चालीस हजार, कोड़ पूर्व चिउं अधिक ही। २३. पंचम गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। वर्ष सहस्र दश जेह, पृथक मास फुन अधिक ही। २४. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। वर्ष चालीस हजार, पृथक मास चिउं अधिक ही ।। २५. षष्ठम गम संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। वर्ष सहस्र दश जेह, कोड़ पूर्व फुन अधिक ही ।। २६. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों । __वर्ष चालीस हजार, कोड़ पूर्व चिउं अधिक ही ।। *लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र काइ १. वृत्ति के जिस अंश के आधार पर वातिका लिखी गई है, वह सोरठों के सामने आ गई। श० २४, उ• २१, ढा. ४२९ १६५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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