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________________ १३७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श० २४१२३४) १३५. ए गम पंच विषेह, अठ भव आख्या ते भणो । वर उपयोग करेह, तसु संवेध विचारिवो।। १३६. शेष गमक त्रिहुं ख्यात, गमन पंचेंद्रिय अष्ट भव । विकलेंद्रिय संख्यात, स्थावर साथे संख भव ।। १३७. सेवं भंते ! स्वामजी, शत चउवीसम सारो जी। अष्टदशम उद्देश नों, आख्यो अर्थ उदारो जी। चतुर्विशतितमशते अष्टादशोद्देशकार्थः ॥२४॥१८॥ चरिद्रिय में १२ ठिकाणां मां ऊपज, तेहनों अधिकार' १३८. चउरिद्रिया भगवंतजी! किहां थकी उपजेहो जी ? जिम तेइंद्री उद्देश छ, तिम चउरिद्रिया लेहो जी॥ १३९. णवरं स्थिति तथा वली, संवेध प्रति जाणेहो जी। सेवं भंते ! स्वाम जी, एगुणवीसमो लेहो जी। १३८. चउरिदिया णं भंते ! कोहितो उववज्जति ? जहा तेइंदियाणं उद्देसओ तहेव चरिदियाणं वि, १३९. नवरं-ठिति संवेहं च जाणेज्जा । (श० २४१२३५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (० २४१२३६) सारा सोरठा १४०. पंच स्थावर पहिछाण. बे. ते. चउरिद्रिय वली। असन्नी तिरि मनु जाण, फन सन्नी तिर्यंच मनु । १४१. विकलेंद्रिय रे मांय, आवै बार ठिकाण नों। जघन्य गमेज पाय, गमा णाणत्ता पृथ्वीवत ।। १४२. उत्कृष्ट गमेज पाय, ते पिण पृथ्वी नी परै । असन्नी मनु जे आय, तेह विषे नहिं णाणत्तो ।। १४३. विकलेंद्रिय में आय, पंच स्थावर विकलेंद्रिय । चिहुं गम उत्कृष्ट पाय, संख्याता भव नै अद्धा ।। १४४. तीजे छठे जाण, सप्तम अष्टम नवम गम । जघन्य दोय भव आण, उत्कृष्टा भव अष्ट फन ।। १४५. विकलेंद्रिय में आय, असन्नी तिरि पंचेंद्रिय । सन्नी तिरि मनु ताय, नव गम उत्कृष्ट अठ भव ।। १४६. विकलेंद्रिय रे मांय, असन्नी मनु आवै तसु । मध्यम त्रिण गम पाय, उत्कृष्टा भव अष्ट जे।। १४७. *च्यारसी ने चउवीसमी, आखी ढाल अमंदो जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष आणंदो जी' ।। चतुविशतितमशते एकोनविशोदेशकार्थः ॥२४॥१६॥ *लय : धर्म दलालो चित कर १. देखें परि. २, यंत्र ६२-७३ २. भगवती जोड़ की मूल प्रति में ४२४वीं ढाल की सम्पूर्ति के बाद निम्नलिखित नोंध और एक सोरठा उपलब्ध है। पांच स्थावर ५ तीन विकलेन्द्रिय ८ असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय ९ सम्नी तिर्यच पचंद्रिय १. असन्नी मनुष्य ११ और सन्नी मनुष्य १२-एव १२ ठिकाणांना विकलेंद्रिय में ऊपज । त्रिण विकलेंद्रिय माय, उपज द्वादश स्थान नों। तास णाणत्ता पाय. ते पिण पृथ्वी नी पर। ढाल पूरी होने के बाद यह क्यों दिया गया ? इस सम्बन्ध में रचनाकर द्वारा कोई सकेत न देने के कारण इसे पाद टिप्पण में दिया गया है। श० २४, उ० १९, डा. ४२४ १२९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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