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________________ ७३. जिन कहै कल्पवासी सुरा वैमानिक उपजतो जी । कल्पातीत विमाणिया, यावत ते नहि हुंतो जी ॥ ७४. जो कल्पवासी सुर ऊपजे, तो स्यूं सौधर्म नां वासी जी। वैमानिक जाव ऊपजै, के अच्युत नां विमासी जी ? ७५. जिन कहै वासी सौधर्म नां, वलि ईशाण न तो जी । पिण नहि सनतकुमार नां, जाव अच्युत नां न उपजंतो जी । पृथ्वीका में सौधर्मवासी देव ऊपजं, तेहनों अधिकार' ओघिक नैं अधिक (१) ७६. सुर सौधर्मक हे प्रभुजी ! पृथ्वीकाय विषेहो जी । जवा जोग्य छै, ते कितै काल स्थितिक ऊपजेहो जी ? ७७. इम जिम जोतिषी नों गमो, दाख्यो तिम कहिवायो जी। वरं सुर स्थिति में वली, अनुबन्ध इह विधि बायो जी।। ७८. सुर स्थिति ने अनुबंध जे, जयन्य थकी अवलोयो जी । सोहम्म सुर इक पल्य स्थिति, उत्कृष्ट सागर दोयो जी ॥ ७९. काल आश्रयी जघन्य थी, इक पल्य सुर स्थिति माणी जी । । अंत अधिक ही ए पुढयो स्थिति जाणी जी || ८०. उत्कुष्टो बढा वसु, सोहम्म सागर दोयो जी अद्धा वर्ष सहस्र बावीस ही, पुढवी स्थिति अवलोयो जी ॥ ८१. सेवै कालज एतलो, करै गति आगति इतो अधिक न अधिक गमो दाख्यो प्रथम ८२. इमज शेष पिण अठ गमा, भणवा णवरं विशेखो जी । स्थिति अनें कालादेश छै, ते कहिवूं करि लेखो जी ॥ वा०-- इहां स्थिति ते सौधर्म देव नीं जाणवी ते प्रथम तीन गमे जघन्य कालो जी । दयालो जी ।। एक पल्य उत्कृष्टो वे सागर । अनं विचलं तीन गमे जघन्य उत्कृष्ट १ पल्य । अनैं छेहले तीन गमे जघन्य उत्कृष्ट २ सागर । हिवे काल आश्रयी प्रथम गभो तो पूर्वे कह्योहीज छे, शेष आठ गमा कहे छे सोरठा ३. द्वितीय गमे संवेह, काल आश्रयी जघन्य थी । एक पत्योपम लेह, अंतर्मुहूर्त्त अधिक फुन ॥ ८४. उत्कृष्ट अद्धा जोय, ते पिण बे भव नों तसु । सोहम सागर दोय, अंतर्मुहूर्त अधिक महि ॥ ८५. तृतीय गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य एक पल्योपम लेह वर्ष सहस्र बावीस *लय : कर जोड़ी आगल रहे देखे परि २, यंत्र ४२ ११६ भगवती जोड़ Jain Education International थी । फुन । ७२. गोमा पोयमाणदेहितो, तो कप्पातीतामणिदेवेति । ( ० २४।२१६) ७४. जइ कप्पोवावेमा णियदेवे हितो उववज्जंति - कि सोहम्मरुप्पोबावेमा जियदेवेद्दितो वा अन्यको बामणियदेवेहितो? ७५. गोयमा सोम्मकोवावेमा गियदेवेहितो ईसा कप्पोनमानियदेवेहितो, नो सणकुमार जब नो अच्चुयकप्पवावेमागियो । (१० २४२१७) ७६. सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ? ७७. एवं जहा जोइसियस्स गमगो, नवरं ७८. ठिली अनुबंधों व जहणं पलियोवमं, उनकोसे दो सागरोवमाई | ७९. कालादेसेणं जहणेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तमन्भहियं, ८०. उनको दो सामरोवमाई बाबीसाए बाससहि अब्भहियाई, ८१. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्ज्जा । For Private & Personal Use Only ८२. एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा, नवरं - ठिति कालादेसं च जाणेज्जा । ( श० २४।२१८ ) www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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