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________________ नाणत्ता १६१. पुढवी पृथ्वी मांय, ऊपजे तसु चिउं णाणत्ता। जघन्य गमेज पाय, प्रथम तीन लेश्या हुवै ।। १६२. आयु नै अनुबंध, अंतर्मुहुर्त नों कह्यो। __ अध्यवसायज मंद, माठा ए चिउं णाणत्ता । १६३. अप पुढवी में जाय, तसु पिण ए चिउं णाणत्ता। तेऊ नां पिण ताय, लेश विना त्रिण णाणत्ता ।। १६४. वायू पृथ्वी मांय, उपजै तसु चिउं णाणत्ता । तेऊवत त्रिहुं पाय, समुद्घात वैक्रिय वली। १६५. धुर गम वैक्रिय पाय, मध्यम त्रिण गम अपज्जते । वेक्रिय लहियै नांय, इम समुद्धात वैक्रिय नहीं ।। वा०-'इहां सूत्रे प्रथम ओधिक गमे वाउकाय नां औदारिक मूल शरीर नां कथन माट वैक्रिय समुद्घात न कही। तिणसूं इहां सूत्र जघन्य गमे वैक्रिय समुद्घात नों णाणत्तो नथी का । अर्ने पन्नवणा पद ३६ में वाउकाय में वेदनी, कषाय मारणांतिक, वैक्रिय-ए ४ समुद्घात कही । तथा जीवाभिगम पहिली पडिवत्ती में वाउकाय में एहिज ४ समुद्घात कही। तथा भगवती शतक ८ उद्देशे १ वाउकाय रा पर्याप्ता में वैक्रिय समुद्घात पावै । अनं जघन्य गमे अपर्याप्ता माट न पावै । तिणसूं समुद्धात नों नाणत्तो चउथो कहिये । जिम पृथ्वी नै विषे वाऊ ऊपजता नै वैक्रिय गमा नै विषे कह्यो, तिम अप में, तेऊ में, वाऊ में, वनस्पति में, विकलेंद्रिय में, तिथंच पंचेंद्रिय में वाऊ ऊपज तिण में वैक्रिय समुद्घात इहाँ न कही । ते औदारिक मूल शरीर माटे । पिण और सूत्रे वाउकाय में ४ शरीर, ४ समुद्घात कही । ते मार्ट जघन्य गमे समुद्घात नों चउथो णाणत्तो सर्व ठिकाणे संभव ।' (ज० स०) १६६. पुढवी विषे पिछाण, ऊपजतो जे वणस्सइ । जघन्य गमे सुजाण, पंच णाणत्ता तेहनां ।। १६७. चित्रं पुढवीवत इष्ट, अवगाहन नों पंचमो। जघन्य अनै उत्कृष्ट, असंख भाग आंगुल तणों ।। वा-पृथ्वी अप, तेज, वाऊ, वनस्पति --ए पांच स्थावर पृथ्वी में आवं १,२,४,५-ए च्यार गमा जघन्य दो भव, उत्कृष्ट असंख्याता भव । असंख्यातो काल अन समै-समै असंख्याता ऊपजै । तथा ३, ६, ७, ८, ९,-ए पांच गमा जघन्य २ भव, उत्कृष्ट ८ भव ऊपजै तो जघन्य १, २, ३ ऊपजै अनै उत्कृष्ट संख्याता-असंख्याता ऊपजै । १६८. *ए चउवीसम शत तणों जी, वर द्वादशम उद्देस । देथ अर्थ थी आखियो जी, देश रह्यो फुन शेष ।। १६९. एह च्यारसौ बीसमी जी, ढाले पृथ्वी संबंध । _ भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' परमानंद ।। वा०-वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा___ वेदणासमुग्घाए कषायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्घाए। (पण्ण० ३६५६) तेसि (वाउक्काइयाणं) णं भंते ! ........."चत्तारि समुग्घाया-वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए वे उब्वियसमुग्घाए । (जीवाजीवाभिगमे १८२) *लय : खिम्यावंत धिन भगवंत रो जी ज्ञान ९२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Pers www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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