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नंदी
सूत्रकार ने गाथा के माध्यम से अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र का प्रमाण बतलाया है। एक पनक जीव जो सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म है, तीन समय का आहारक है, उसकी जितनी अवगाहना है वह अवधिज्ञान के क्षेत्र का जघन्य प्रमाण है । षट्खण्डागम के अनुसार लब्धि से अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीव की अवगाहना अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है।
इस विषय में हरिभद्रसूरि और मलयगिरि ने सम्प्रदाय का उल्लेख किया है --एक मत्स्य जो हजार योजन लंबा है, जो अपने ही शरीर के बाह्य भाग के एक देश में उत्पन्न होने वाला है, वह पहले समय में अपने शरीर में व्याप्त सब आत्मप्रदेशों की मोटाई को संकुचित कर प्रतर बनाता है। उस प्रतर की मोटाई अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण तथा लम्बाई-चौड़ाई अपने देह प्रमाण से होती है। दूसरे समय में उस प्रतर को संकुचित कर वह मत्स्य देहप्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाले आत्म-प्रदेशों की सूची बनाता है । उस सूची की मोटाई चौड़ाई अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण होती है। तीसरे समय में उस सूची को संकुचित कर अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण अपने शरीर के बाहरी प्रदेश में सूक्ष्म परिणति वाले पनक के रूप में उत्पन्न होता है। उत्पत्ति के तीसरे समय में पनक के शरीर का जितना प्रमाण होता है, उतने प्रमाण वाला क्षेत्र अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इतने क्षेत्र में अवस्थित वस्तु जघन्य अवधिज्ञानी का विषय बनती है।
हरिभद्रसूरि और मलयगिरि ने विशेषावश्यक भाष्य में उल्लिखित प्रश्न और समाधान को उद्धृत किया है --- १. महान् मत्स्य का ग्रहण क्यों? २. तीसरे समय में अपने शरीर में उत्पाद होता है क्या वही त्रिसमयाहारकत्व है ? जिनभद्रगणि ने इन प्रश्नों का समाधान इस प्रकार किया है
१. महामत्स्य तीन समयों में आत्मप्रदेशों का संकुचन कर अपने प्रयत्न विशेष से सूक्ष्म अवगाहना वाला होता है। इसीलिए महामत्स्य का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
२. वह प्रथम और द्वितीय समय में अतिसूक्ष्म अवगाहना वाला होता है। चौथे समय में अतिस्थूल अवगाहना वाला होता है इसलिए त्रिसमय आहारक का ग्रहण किया गया है। शब्द विमर्श
पसत्थ अज्झवसाण-तेजस, पद्म और शुक्ल ये तीन प्रशस्त लेश्याएं हैं। प्रशस्त द्रव्य लेश्या से अनुरंजित चित्त का अर्थ है प्रशस्त अध्यवसान ।
गाथा २
११. (गाथा २)
प्रस्तुत गाथा में परमावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र के परिमाण का निरूपण है। सूक्ष्म अग्निकायिक जीव जब उत्कृष्ट परिमाण में होते हैं तथा बादर अग्निकायिक जीव भी अधिक होते हैं। यहां सर्वबहुअग्नि जीवों का वह परिमाण विवक्षित है। सर्वबहुअग्नि के जीव सब दिशाओं में जितने क्षेत्र को व्याप्त करते हैं, वह परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र है। इसे आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य में एक कल्पना द्वारा समझाया गया है।
अग्निजीवों के शरीर की अवगाहना असंख्येय प्रदेशात्मक होती है। उक्त अवगाहना वाले शरीरों की एक सूची बनाएं। अवधिज्ञानी की देह के पर्यन्तवर्ती भाग से उसे सब दिशाओं में घुमाएं। वह सूची अलोक में लोक प्रमाण असंख्येय खण्डों का स्पर्श
- १. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. ३०१,३०२:
३. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २६ ओगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहमणिगोदजीवस्स ।
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९१ जहेही तद्देही जहणिया खेत्तदो ओही ॥
४. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५९२ से ५९५ एगमुस्सेहघणंगुलं ठविय पलिदावमस्स असंखेज्जदिभागेण ५. (क) नन्दी चूणि, पृ. १८ : पसत्थज्झवसाणट्ठाणा खंडिद्दे तत्थ एयखंडपमाणं सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स
तेआदिपसत्थलेसाणुगता भवंति, पसत्थदव्वलेसाहि तदियसमय-आहार-तदियसमयतब्भवत्थस्स जहणिया
अणुरंजितं चित्तं पसत्थज्झवसाणो भण्णति । ओगाहणा होदि।
(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २६ २. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २६
६. (क) आवश्यकनियुक्ति, गा. ३१ (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९१
(ख) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ६०२ की वृत्ति
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