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________________ ५८ संस्थान, पशु का संस्थान, पक्षी का संस्थान आदि । धवला में विभंगज्ञान के क्षेत्र संस्थानों का उल्लेख मिलता है' "ये संस्थान तियंजन और मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में होते हैं, नीचे के भाग में नहीं होते; क्योंकि शुभ संस्थानों का अधोभाग के साथ विरोध है । तथा तिर्यञ्च और मनुष्य विभंगज्ञानियों के नाभि से नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं । विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। अवधिज्ञान से लौटकर प्राप्त हुए विभंगज्ञानियों के भी शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं ।" प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आचार्यों के सामने विभंगज्ञान के संस्थान की व्याख्या स्पष्ट नहीं रही। दिगम्बर आचार्यों के सामने वह स्पष्ट थी। अवधिज्ञान और विभंगज्ञान दोनों के शरीरगत संस्थान होते हैं। यह मत निर्विवाद है । षट्खण्डागम और धवला में करण या चैतन्य केन्द्र के बारे में विशद जानकारी मिलती है "खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा । सिरिवच्छ - कलस - संख-सोत्थिय - णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति ।" इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि जीव प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकास के आधार पर चैतन्यकेन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं । षट्खण्डागम और धवला में उनका उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत आगम में उनके नामों का निर्देश नहीं है । अन्तगत और मध्यगत के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश है । भगवती' में प्राप्त विभंगज्ञान के संस्थानों के उल्लेख से यह अनुमान करना सहज है कि अवधिज्ञान से संबद्ध चैतन्यकेन्द्रों का निर्देश भी आगम साहित्य में था किन्तु वह किसी कारणवश विलुप्त हो गया । शब्द विमर्श सूत्र १० अन्तगत-शरीर के पर्यंतभागवर्ती चैतन्यकेन्द्रों से होनेवाला अवधिज्ञान । मध्ययत - शरीर के मध्यभागवत चैतन्यकेन्द्रों से होनेवाला अवधिज्ञान । सूत्र १२ चुडलियं -- आगे से जलता हुआ घास का पूला अथवा मशाल । * पणोल्लेमाणे – आगे से आगे ले जाता हुआ । " उल्का-दीपिका । अलात जलता हुआ काष्ठ । मणि - पद्मरागादि प्रज्वलित मणि । ज्योति – पात्र विशेष में जलती हुई अग्नि । सूत्र १६ सव्वओ समता - सर्वतः सब दिशाओं और विदिशाओं में सब आत्मप्रदेशों और सब विशुद्ध स्पर्धकों में होने वाला ।" १. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९८ २. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९६ से २९८ ( हिन्दी अनुवाद सहित) | २. १०३ ४. नन्दी चूर्ण, पृ. १६ : चुडलि ति-तणपिंडी अग्गे पज्जलिता । ५. (क) वही, पृ. १६,१७ 'पगोल' ति "द प्रेरणे" हत्यगहितस्स दंडहितस्स वा परंपरेण नयनमित्यर्थः । (ख) हारिभद्रया वृत्ति, पृ. २३ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ८४ Jain Education International नंदी ६. हरिमा ७. वही, पृ. २३ : रोऽग्निः । (ख) (ग) ८. (क) नन्दी चूणि, पृ. १७ : 'सव्वतो' त्ति सव्वासु विदिसि विदिखा 'समता' इति सम्यातपदेस सम्वे वा विशुद्धये अहवा 'सवतो' सि सव्वासु दिसि विदिसासु सम्यातप्यवेसफगेतु य हारिमडीया वृत्ति, पृ. २४ मलयविरीया वृत्ति प. ५ For Private & Personal Use Only १. २३ मणिः पद्मरागादिः । प्रदीपशिखादि ज्योतिः, मल्लिकाद्याधा www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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