________________
समर्पण
पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ।
॥२
॥
विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलदं णवणीय मच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।।
जिससे आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत सध्यान लीन चिर चितन, जयाचार्य को विमल भाव से ।।
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स पणिहाणपुव्वं ॥
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में। हेतभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।।
विनयावनत गणाधिपति तुलसी
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org