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नंदी
एक आचार्य के पास कुछ निजी शिष्य थे और कुछ प्रतीच्छक (विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए आनेवाले) । आचार्य बहुश्रुत थे । आचार्य उन सबको वाचना देते थे । वाचना सब लेते थे, पर आचार्य की सेवा करने का दायित्व एक दूसरे पर डालते । शिष्य सोचते वैयावृत्य प्रतीच्छक करेंगे और प्रतीच्छक सोचते सेवा शिष्य करेंगे। इस क्रम से आचार्य की उचित परिचर्या नहीं हुई। आचार्य अस्वस्थ हो गए। संघ में शिष्यों का अवर्णवाद हुआ । अन्य वाचक आचार्यों ने उन्हें वाचना नहीं दी । दूसरे संघों में भी उन्हें स्थान नहीं मिला । फलतः वे अगीतार्थ रह गए।
एक अन्य आचार्य के पास भी निजी शिष्य और प्रतीच्छक वाचना लेते थे। वे सब अपने आचार्य की अच्छी सेवा करते थे। आचार्य स्वस्थ रहे और शिष्य गीतार्थ बने ।' १३. भेरी दृष्टान्त--
द्वारिका नगरी, वासुदेव कृष्ण का राज्य । उनके पास चार भेरियां थी। उनके नाम थे--कौमुदिकी, सांग्रामिकी और दुर्भुतिका । पहली भेरी उत्सव की सूचना देने के लिए बजाई जाती थी, दूसरी युद्ध के समय और तीसरी आकस्मिक प्रयोजन की सूचना देने के लिए।
अशिवोपशमिनी नामक एक चौथी भेरी थी, वह गोशीर्ष-चंदन निमित थी। जो छः महीनों से बजाई जाती थी। उसके शब्द बारह योजन तक सुनाई देते थे । उस शब्द को सुनने वाले रुग्ण व्यक्ति स्वस्थ हो जाते और भविष्य में छह मास तक उन्हें किसी प्रकार की व्याधि नहीं होती । वह भेरी देव से प्राप्त थी।
वह भेरी एक भेरीवादक के निरीक्षण में रहती थी। किसी समय वहां एक धनाढ्य परदेशी आया। वह शिर की वेदना से आक्रांत था। वैद्य ने बताया-गोशीर्षचन्दन लाओ, तुम्हारी बीमारी मिट जाएगी। गोशीर्षचन्दन कहीं मिला नहीं । वह खोज करते-करते भेरीवादक के पास पहुंचा। विपुल धन देकर उसने भेरी का खंड प्राप्त कर लिया। उसके स्थान पर साधारण चंदन काष्ठ का टुकड़ा लगा दिया।
घटना स्वयं बोलती है। धीरे-धीरे गोशीर्ष चंदन की बात फैल गई। रोगी वहां पहुंचने लगे। भेरीरक्षक प्रचुर धन लेकर उन्हें गोशीर्ष चंदन का एक-एक खंड देता रहा और साधारण चंदन उसके स्थान पर लगाता रहा । आखिर वह भेरी कंथा बन गई। उससे पहले जैसा शब्द नहीं हुआ और न ही रोग का उपशमन । तब श्रीकृष्ण ने भेरी की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त किया । जांच से पता चला भेरी कंथा बन गई । वासुदेव कृष्ण ने भेरीपाल के कुल का उच्छेद कर दिया।
पुनः देव से भेरी प्राप्त की। योग्य व्यक्ति की भेरीपाल के रूप में नियुक्ति की। उसने जागरूकता के साथ भेरी की रक्षा की।
जो शिष्य आगम के आलापकों को प्राप्त कर लौकिक और लोकोत्तरिक-अन्य दर्शन से संबद्ध आलापकों को उनमें जोड़ देता है वह आगम को कंथा बना देता है। वह अध्ययन के अयोग्य है । जो शिष्य आलापक की सुरक्षा करता है वह अध्ययन के लिए योग्य है। १४. आभीरी दृष्टान्त--
एक अहीर घी से घड़ों को भरकर बेचने के लिए अपनी पत्नी के साथ नगर में गया। घी बेचने वाले दूसरे अहीर भी उसके साथ थे। अहीर गाड़ी के ऊपर बैठ गया था और अहीरन नीचे खड़ी थी। बाजार में पहुंचकर अहीर ने अपनी पत्नी को घी १. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४७३ से १४७५ :
(ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३५६ से ३५९ अन्नो दोज्झइ कल्ले निरस्थियं कि वहामि से चारि ।
कोमुइया संगामिया य दुब्भूइया य भेरीओ। चउचरणगवी उ मया अवन्न-हाणी य बडुयाणं ॥
कण्हस्स आसि तइया, असिवोवसमी चउत्थी उ । मा मे होज्ज अवण्णो गोवज्झा वा पुणो वि न दविज्जा।
संकपसंसा गुणगाहि केसवा नेमिवंद सुणदंता । वयमवि दोज्झामो पुणो अणुग्गहो अन्नदुद्धे वि ।
आसरयणस्स हरणं, कुमारभंगे य पुययुद्धं ॥ सीसा पडिच्छगाणं भरो त्ति ते विय ह सीसगभरो त्ति।
नेहि जितो मि त्ति अहं, असिवोवसमीए संपयाणं च । न करेंति सुत्तहाणी अन्नत्थ वि दुल्लहं तेसि ।।
छम्मासिय घोसणया, पसमेति न जायए अन्न ॥ (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३५३ से ३५५
आगंतु वाहिखोभो, महिड्ढि मोल्लेण कंथ डंडणया । (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५९,६०
अट्ठम आराहण अन्न भेरि अन्नस्स ठवणं च । २. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४७६ से १४७९
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८
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