________________
२८
नंदी छिद्र कुट के समान शिष्य अध्ययन के लिए अयोग्य होता है। शेष तीन योग्य होते हैं वे क्रमश: योग्य, योग्यतर और योग्यतम होते हैं। ३. चालनी दृष्टान्त
जो श्रोता चालनी के समान होता है उसके कान में सूत्रार्थ का प्रवेश होता है और वह तत्काल उसको भूल जाता है। ऐसा व्यक्ति सूत्रार्थ ग्रहण के योग्य नहीं होता ।
एक बार शैल, छिद्रकुट और चालनी तुल्य तीनों शिष्य मिले । आपस में वार्तालाप शुरू किया । बोला-भाई ! तुमने क्या अवधारित किया ? छिद्रकुट बोला-मैं स्वाध्याय मण्डली में था तब मैंने सारा ग्रहण किया, उठा, सारा का सारा भूल गया । चालनी तुल्य शिष्य बोला-भाई ! मेरी कथा क्या बताऊं ! एक कान से आता है दूसरे से निकल जाता है । मुद्गशैल तुल्य शिष्य बोला- तुम दोनों धन्य हो। तुम्हारे कानों में सूत्रार्थ आता है, निकल जाता है किन्तु मैं तो ऐसा ही हूं, मेरे कानों में तो सुत्रार्थ का प्रवेश ही नहीं होता। ४. 'परिपूणग' दृष्टान्त
परिपूणग--बया का घोंसला। आभीरी उससे घी छानती है। कचरा उसमें रह जाता है और घी नीचे पात्र में चला जाता है । जो शिष्य व्याख्या अथवा वाचना में दोषों को ग्रहण कर लेता है, गुणों को छोड़ देता है, वह परिपूणग के समान होता है। वह अध्ययन के अयोग्य होता है। ५.हंस दृष्टान्त--
कुछ शिष्य हंस के समान गुणग्राही होते हैं। हंस के सामने दूध आता है तो वह दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है । उसकी चोंच में अम्लता होती है इसलिए जल और दूध का पृथक्करण हो जाता है। इसी प्रकार योग्य शिष्य गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान का विवेचन और विश्लेषण कर सार को ग्रहण कर लेता है । गुरु ने अनुपयुक्त अवस्था में कुछ कहा, उसे छोड़कर यथार्थ को ग्रहण कर लेता है। ६. महिष दृष्टान्त -
भैसा जल पीने के लिए तलैया-जल में प्रवेश करता है। वह उसमें बार-बार घूमता है अथवा करवट लेता है। इससे पानी कलुषित हो जाता है। वह स्वयं भी उस पानी को नहीं पी सकता और न उसका यूथ पी सकता है ।
कुछ शिष्य महिष की तरह होते हैं। वे वाचना परिषद् में अप्रासंगिक प्रश्न पूछते हैं, कुतर्क करते हैं, कलह तथा विकथा के कारण स्वयं सूत्रार्थ का ग्रहण नहीं कर पाते और दूसरों के ग्रहण करने में व्यवधान पैदा करते हैं।' ७. मेष दृष्टान्त---
मेष का मुंह पतला होता है। वह गोष्पद मात्र जल को भी कलुषित किए बिना शांत भाव से पी लेता है । जो शिष्य गुरु से एक पद भी पूछना हो तो उन्हें प्रसन्न कर विनयपूर्वक गुरु को पूछता है, वह मेष तुल्य होता है। वह अध्ययन के लिए सर्वथा योग्य १. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४६३,१४६४ :
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प०५७ सेले य छिड्ड-चालणि मिहो कहा सोउमुट्ठियाणं तु। ३. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४६७ : छिड्डाह तत्थ विट्ठो सुमरिसु सरामि नेदाणि ॥
अंबत्तणेण जीहाए कूचिया होइ खीरमुदगम्मि । एगेण विसइ बीएण नीइ कन्नेण चालणी आह ।
हंसो मुत्तूण जलं आवियइ पयं तह सुसीसो॥ धन्नत्थ आह सेलो जं पविसइ नीइ वा तुझं ॥
(ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३४७ । (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३४३,३४४ ।
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प.५८ । (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प० ५७
४. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४६८ : २. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४६५ :
सयमवि न पियइ महिसो न य तावसखउरकठिणयं चालणिपडिवक्खो
___जूहं पियइ लोडियं उदगं । न सवइ दवं पि।
विग्गह-विगहाहि तहा अथक्कपुच्छाहि य कुसीसो॥ परिपूण गम्मि उ गुणा गलंति दोसा य चिट्ठति ॥
(ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३४८ (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३४५
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org