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________________ प्र० १, गा० २६, २७, टि० १६-१७ २३ "अज्ज" शब्द के तीन संस्कृत रूप हो सकते है--अद्य, आर्य और आद्य । व्याख्या ग्रंथों में आर्य और आद्य ये दो रूप निर्दिष्ट हैं । चूर्णिकार ने जीत का अर्थ सूत्र किया है। टीकाकार हरिभद्र और मलयगिरि ने इसके अर्थ का विस्तार किया है । उनकी व्याख्या में जीत के पांच अर्थ उपलब्ध हैं— सूत्र, स्थिति, कल्प, मर्यादा और व्यवस्था । " आगम साहित्य में गण की व्यवस्था और प्रायश्चित्तविधि के लिए व्यवहार के पांच प्रमाण स्थापित हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत । इनमें पांचवां व्यवहार जीत है। स्थविर शाण्डिल्य इस जीत व्यवहार के विशेषज्ञ थे । यह 'जीतधर' इस विशेषण से ज्ञात होता है। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं १. जीत व्यवहार की स्थापना आर्य शाण्डिल्य से पहले हो चुकी थी और वे उसके विशेषज्ञ थे । २. जीत व्यवहार की व्यवस्था आर्य शाण्डिल्य ने की थी । चूर्णिकार ने 'जीवधर' पाठान्तर का उल्लेख किया है। इसके साथ-साथ एक मतान्तर का भी उल्लेख किया है । उसके अनुसार शाण्डिल्य का अंतेवासी "जीवधर" नामक अनगार था। उसका गोत्र था आर्य । हरिभद्र और मलयगिरि ने 'जीतधर' इस नाम के मतान्तर का उल्लेख किया है। हिमवंत स्थविरावली के अनुसार आर्य शाण्डिल्य के आर्य जीतधर व आर्य समुद्र नाम के दो शिष्य थे । अतः उनका 'जीतधर' विशेषण शिष्य जीतधर के नाम के आधार पर होना चाहिए किंतु कल्पसूत्र, पर्युषणाकल्प की स्थविरावली से आर्य जीतधर या जीवधर की पुष्टि नहीं होती है । आर्य शाण्डिल्य का गृहस्थ जीवन का काल वाईस वर्ष का था । वे अड़चास वर्ष तक जीवन के कुल ७६ वर्ष के काल में अट्ठाईस वर्ष तक उन्होंने युगप्रधान पद को सुशोभित किया। उम्र में वी०नि० ४१४ में स्वर्गवास हो गया । पर्युषण की स्वविरावली में स्वाति, स्वामार्थ और शाण्डिल्य का उल्लेख नहीं है। यदि पर्युपमाकल्प की स्थविरावली देवगण से प्राचीन है तो नंदी की स्थविरावली और पर्युषणाकल्प की स्थविरावली में यह अंतर क्यों ? आगम के संकलन काल में देव ने पर्युषणाकल्प की स्थविरावली को नंदी की स्थविरावली से भिन्न क्यों रखा? यदि पर्यपणाकल्प की स्थविरामी देवधिगण के उत्तरकाल की है तो यह अंतर हो सकता है। भिन्न-भिन्न स्थविरावलियों और पट्टावलियों के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि अनेक शाखाएं और अनेक गुरु-परंपराएं रही हैं। जो लेखक जिस शाखा व गुरु-परंपरा का था, उसने अपनी गुरु-परंपरा के आधार पर स्थविरावलियां कर दी । अतः सब स्थविरावलियों में समानता खोजना प्रासंगिक नहीं है । गाथा २७ १७. ( गाथा २७ ) कालकाचार्य कथा के अनुसार सागरसूरि सुवर्णभूमि (वर्तमाना जावा, सुमात्रा इण्डोनेशिया) द्वीप में विहार कर रहे थे । कालकाचार्य स्वयं उनके पास गए थे। इस आधार पर सूत्रकार ने 'तिसमुद्दखायकित्ति' इस विशेषण का प्रयोग किया। इस तथ्य के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि समुद्रसूरि और सागरसूरि एक ही व्यक्ति है। पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग करने की परम्परा संस्कृत प्राकृत साहित्य में रही है इसलिए यह अनुमान करना अतिप्रसंग नहीं है । डॉ० उमाकांत शाह ने आर्य समुद्र और सागर को एक ही व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया है।" पूर्णिकार के अनुसार आर्य समुद्र की ख्याति पूर्व, दक्षिण और पश्चिम तीनों समुद्रों तथा उत्तर में बताइय (हिमालय) तक फैली हुई थी। प्रस्तुत आगम (नंदी) की स्पविरावति में श्यामा (कालकाचार्य) के पश्चात् आर्य शाण्डिल्य और शाण्डिल्य के पश्चात् आर्य समुद्र का उल्लेख है । कालकाचार्य अनेक हुए हैं। श्यामार्य आर्य समुद्र के दादागुरु थे। इस विषय में उमाकांत शाह ने काफी समीक्षा की है फिर भी कौनसे कालकाचार्य स्वर्णभूमि में गए यह विषय पुनः अनुसंधेय है । ६. ( क ) हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ११: अन्ये तु व्याचक्षतेकिल शाण्डिल्यस्य शिष्यः आर्यसगोत्तो जीतधरनामा सुरिरासीदिति । (ख) मलयगिरीया वृत्ति प. ४९ 3 ७. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, पृ. १७७ ८. स्वर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ. ४० ९. नंदी चूर्ण, पू. उत्तरतो बेत १. नंदी चूर्ण, पृ. ८ अज्जति आर्य आद्यं वा । २. वही, पृ. ८ : जीतं ति सुत्तं । २. (क) हारिभद्रया वृति, पृ. ११ 1 (ख) मलपनिया वृत्ति प. ४९ ४. ठाणं, ५।१२४ ५. नंदी चूर्ण, पृ. ८ पाढतरं वा 'जीवधरं' ति आर्यत्वात् जीवं धरेति रक्षतीत्यर्थः । अण्णे पुण मणंति - संडिल्लस्स अंतेवासी जीवधरो अणगारो, सो य अज्जसगोत्तो । Jain Education International सामान्य मुनि पर्याय में रहे । संयम आर्य शाण्डिल्य का १०८ वर्ष की For Private & Personal Use Only पु-दक्षिणापरा ततो समुदा एतंतरे खातकित्ती । www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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