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________________ २१ प्र० १, गा० २५,२६, टि० १५,१६ का है । आर्य सुहस्ती से सबोध प्राप्त कर सम्प्रति ने न केवल सम्पूर्ण भारतवर्ष की ही यात्रा की अपितु अनेक अनार्य क्षेत्रों में भी जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया। आर्य सुहस्ती का अस्तित्वकाल वी० नि० १९१ से २९१ है। आर्य बलिस्सह आर्य महागिरि के प्रमुख अंतेवासी स्थविर आठ थे। उनमें आर्य बलिस्सह को गणाचार्य नियुक्त किया गया । वे कौशिकगोत्रीय ब्राह्मण थे । बहुल और बलिस्सह यमल भ्राता थे। बलिस्सह प्रावचनिक थे अत: प्रस्तुत गाथा में उनको वंदना की गई है। उन्होंने आर्य महागिरि के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण कर कुछ न्यून दस पूर्वो का अध्ययन किया। इनसे उत्तर बलिस्सह गण का प्रवर्तन हुआ। हिमवंत स्थविरावलि के अनुसार कलिंग नरेश महामेघवाहन के शासनकाल में कुमारगिरि पर्वत पर एक वाचना हुई, जिसमें ११ अंगों तथा १० पूर्वो के पाठों को व्यवस्थित किया गया। उसमें आर्य बलिस्सह, बोधिलिंग, सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, श्यामार्य आदि ५०० साधु तथा पोइणी आदि ३०० साध्वियां सम्मिलित हुई। आर्य बलिस्सह का आचार्य काल वी०नि० २४५ से ३२७ या ३२९ तक माना जाता है।' गाथा २६ १६. (गाथा २६) स्वाति-- स्वाति उमास्वाति है अथवा कोई स्थविर ? इस प्रश्न पर कोई निर्णायक मत उपलब्ध नहीं है । इस विषय में एक मत तपागच्छ पट्टावली और तपागच्छ श्रमण वंशवृक्ष का है।' तपागच्छ पट्टावली में बलिस्सह के शिष्य स्वाति तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता है। यह संभावना की गई है।' श्री तपागच्छ श्रमणवंश के अनुसार 'आर्य महागिरि अने आर्य सुहस्तिसूरिजीना समयमा बारावर्षीय भयंकर दुष्काल पड्यो हतो. ते बखते घणा त्यागी साधु-महात्माओं त्या अनशन करी स्वर्ग सिधाव्या हता. ए दुष्कालना प्रभावथी आगमज्ञान क्षीण थतुं जतुं जोइ कलिंगाधिपति खारवेले प्रसिद्ध-प्रसिद्ध जैन स्थविरो ने कुमारी पर्वत ऊपर एकत्र कर्या, जेमा आर्य महागिरिजीनी परंपराना आर्यबलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य बगेरे बसो साधुओ, तेम ज आर्य सुस्थित अने सुप्रतिबद्ध तथा उमास्वाति श्यामाचार्य बगेरे त्रण सो स्थविरकल्पी साधुओ एकत्र थया हता. आर्या पोइणी प्रमुख त्रणसो साध्वीओ आवी हती. कलिंगराज, भिक्षुराज सीवंद, चूर्णक, सेलक बगेर सातसो श्रमणोपासको अने कलिंगमहारानी पूर्णमित्रा आदि सातसो श्रमणोपासिका-श्राविकाओ एकत्र थयी हती." प्रस्तुत पुस्तक के पादटिप्पण में बतलाया गया है कि उमास्वाति का स्वर्गवास वी० नि० चौथी शताब्दी में हुआ है। प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजी ने इस अभिमत की समीक्षा की है। उनके अनुसार वाचक उमास्वाति का समय वि० की ५वीं शताब्दी से पूर्व है। उनकी समीक्षा का मूल आधार तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति है। उसका सार इस प्रकार है---"दीक्षा गुरु ग्यारह अङ्ग के धारक घोषनंदी थे और गुरु वाचक मुख्य शिव श्री । वाचना की दृष्टि से मूल नामक वाचनाचार्य और प्रगुरु महावाचक मुण्डपाल थे। इनका गोत्र कौभीषणि, पिता का नाम स्वाति व माता का नाम वात्सी था। ये उच्चै गर शाखा के वाचक थे। प्रशस्ति के विवरण में उमास्वाति का इतना ही इतिहास उपलब्ध है। प्रस्तुत वाचना में समय का कोई उल्लेख नहीं है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि में उच्चनागरी शाखा का उल्लेख मिलता है। स्थविर सुहस्ति के १२ प्रमुख शिष्य थे। उनमें पांचवें सुस्थित और छठे सुपडिबद्ध थे ।' सुस्थित और सुपडिबद्ध ने कोटिक गण की स्थापना की। उसकी चार शाखाएं हैं। उनमें प्रथम शाखा उच्चनागरी है।' १. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, पृ. ४७७ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । २. श्रमण वंशवृक्ष, पृ. ४६ शिष्येग वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२॥ ३. पट्टावली समुच्चय, पृ. ४६ : बलिस्सहस्य शिष्यस्वातिः न्यग्रोधिकाप्रसूते न विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । तत्वार्थादयोग्रंथास्तु तत्कृता एव संभाव्यते । कौभीषणिना स्वातितनयेनवात्सीसुतेनाय॑म ॥३॥ ४. तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी, पृ. ३२७ : ५. नवसुत्ताणि, पज्जोसवणाकप्पो, सू. १९६ वाचकमुख्यस्य शिव-धियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । ६. वही, सू. २०२ शिष्येण घोषनन्दि-क्षमाश्रमणस्यकादशाङ्गविदः ॥१॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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