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________________ १६ प्र० १, गा० २३,२४, टि० १३,१४ शय्यम्भव जब दीक्षित हुए तब उनकी पत्नी गर्भवती थी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम था मनक । जब वह बड़ा हुआ तब अपने पिता के बारे में जानने के लिए उत्सुक हुआ। उसकी माता ने कहा- तुम्हारे पिता जैन मुनि बन गए हैं। उसमें पितृदर्शन की भावना जागी। घूमते-घूमते वह वहां पहुंच गया। शय्यम्भव ने उसे पहचान लिया। उन्होंने मनक के हाथ की रेखा देखी। उन्हें लगा, बालक का आयुष्य बहुत कम है। समग्र शास्त्रों का अध्ययन इसके लिए संभव नहीं है। उन्होंने अल्पायुष्क मुनि मनक के लिए पूर्वो से दशवकालिक सूत्र का नियूहण किया। इसमें मुनि जीवन की आचारसंहिता का निरूपण है। आचार्य शय्यम्भव २८ वर्ष की अवस्था में श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ३९ वर्ष की अवस्था में आचार्य पद पर आरूढ हुए थे। संयमी जीवन के कुल ३४ वर्षों में २३ वर्ष तक युगप्रधान पद के दायित्व का निपुणता से संचालन किया। वे ६२ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी बने । उनका अस्तित्वकाल वी०नि० ३६ से ९८ तक है। गाथा २४ १४. (गाथा २४) यशोभद्र आचार्य यशोभद भगवान महावीर की परम्परा के पांचवें पट्टधर थे। श्रुतकेवली आचार्यों की परम्परा में इनका स्थान तीसरा है। इनका जन्म बी०नि० ३६ (वि०पू० ४३४) में, ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे तुङ्गीकायन गोत्रीय थे। देवधिगणि ने "जसभई तुगियं वंदे" कहकर इनकी स्तुति की है। यशोभद्र ब्राह्मण परम्परा के प्रभावशाली विद्वान् थे । बड़े-बड़े यज्ञों का संचालन इनका मुख्य कार्य था । आचार्य शय्यंभव के प्रेरणादायी प्रवचन ने इनकी जीवनधारा को बदल दिया। बाईस वर्ष की अवस्था में इन्होंने शय्यंभव के पास दीक्षा ग्रहण की। आगमों व पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि इन्हें अपने दीक्षागुरु से ही प्राप्त हुई। अपनी संयम पर्याय के कुल ६४ वर्षों में से १४ वर्ष तक ये आचार्य शय्यंभव की सन्निधि में रहे। लगभग ५० वर्षों तक उन्होंने युगप्रधान पद को अलंकृत किया। वी०नि० १४८ में इनका स्वर्गवास हो गया। आचार्य शय्यंभव तक एक आचार्य की परम्परा थी। आचार्य यशोभद्र ने अपने बाद संभूतविजय और भद्रबाह-इन दोनों की आचार्य पद पर नियुक्ति की । यह जैन शासन के इतिहास में एक नया अध्याय था। संभूतविजय आचार्य संभूतविजय भगवान् महावीर की परंपरा के छठे पट्टधर थे। श्रुतधर आचार्यों की परम्परा में इनका स्थान चौथा है। ये श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु के लघु भ्राता थे। इनका जन्म वी०नि० ६६ (वि०पू० ४०४) में हुआ। इनका गोत्र माठर थाइसका संकेत नंदी सूत्र के 'संभूयं चेव माठरं' पद से मिलता है। आचार्य यशोभद्र की प्रेरणा से ये जैन संस्कारों में ढले। वी०नि० १०८ में आचार्य यशोभद्र ने इनको दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के बाद श्रमणचर्या का प्रशिक्षण व पूर्वो का गहन ज्ञान प्राप्त कर ये श्रुतधर बन गए । आचार्य यशोभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् इन्होंने श्रमण संघ का नेतृत्व किया। आचार्य संभूतविजय का विशाल शिष्य परिवार था। कल्पसूत्र में इनके-नंदनभद्र, उपनंदनभद्र, तीसभद्र, मणिभद्र आदि १२ शिष्यों का उल्लेख मिलता है। महामात्य शकडाल की यक्षा, यक्षदत्ता आदि सातों पुत्रियों ने आचार्य संभूतविजय के पास ही दीक्षा ग्रहण की थी। ये ४२ वर्ष तक गृह-पर्याय में रहे। इन्होंने कुल ४८ वर्षों तक संयम पर्याय का पालन किया जिसमें आठ वर्ष तक आचार्य पद का दायित्व संभाला । जनजीवन को अध्यात्म के आलोक से आलोकित करते हुए आचार्य संभूतविजय ८२ वर्ष की अवस्था में वी०नि० १५६ में स्वर्गगामी बने । उनका अस्तित्वकाल वी०नि० ६६ से १५६ तक का है। भद्रबाहू __ भद्रबाहु भगवान् महावीर की परंपरा के सप्तम पट्टधर और श्रुतकेवली आचार्यों की परंपरा में पांचवें श्रुतकेवली थे। इनका जन्म वी०नि० ९४ (वि०पू० ३७६) में हुआ। आचार्य यशोभद्र के पास वी०नि० १३० में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। आचार्य यशोभद्र से १४ पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि प्राप्त कर ये श्रुतधर बन गए। आचार्य यशोभद्र ने अपने पीछे संभूतविजय और भद्रबाहु दोनों की नियुक्ति एक साथ की। अवस्था में ज्येष्ठ संभूतविजय ने यह दायित्व पहले संभाला और उनके बाद भद्रबाहु ने संघ संचालन का कार्य किया। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परंपराओं Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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