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________________ प्र० १, गा० १७-२३, टि० ११-१३ इस गाथा का तात्पर्यार्थ यह है-प्रावचनिक पुरुष संघ के शिखर हैं। विविध कुलों में उत्पन्न साधु कल्पवृक्ष हैं । वे क्षीरास्रव आदि लब्धि रूपी फलों से झुके हुए हैं । लब्धि के हेतु कुसुम हैं। वह संघ-शिखर विनय रूपी तप से ज्योतिर्मय प्रतीत हो रहा है। हरिभद्र' और मलयगिरि' ने धर्म को फल स्थानीय और कुसुम को लब्धि स्थानीय बतलाया है। गाथा १७ कंत-कान्तियुक्त। दिप्पंत-मति, श्रुत आदि प्रधान ज्ञान के द्वारा जीव आदि पदार्थों की उपलब्धि होने के कारण दीप्यमान ।' यहां विशिष्ट ज्ञानयुक्त युगप्रधान पुरुष चूड़ा के रूप में विवक्षित हैं।' गाथा १८,१९ १२. (गाथा १८,१६) पूर्ववर्ती गाथाओं में चरम तीर्थङ्कर भगवान महावीर और संघ को प्रणाम किया गया है। अग्रिम गाथाओं में आवली का निरूपण है । आवली तीन प्रकार की होती है"--१. तीर्थकरावली २. गणधरावली ३. स्थविरावली। प्रस्तुत दो गाथाओं में तीर्थकरावली का निर्देश है । गाथा २३ १३. (गाथा २३) आगम साहित्य में भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती आचार्यों की दो आवलियां मिलती हैं । नन्दी में अनुयोगधर अथवा युगप्रधान स्थविरों की आवली है। कल्पसूत्र में स्थविरों की आवली है, वह विस्तृत है। उसमें अनेक शाखाओं का उल्लेख है।" भूमिका में दोनों आवलियों का निदर्शन है।' सुधर्मा महावीर की परम्परा में प्रथम युगप्रधान है सुधर्मा । विदेह प्रदेश (उत्तर बिहार) की राजधानी वैशाली के समीप कोल्लाग सन्निवेश में ब्राह्मण परिवार में सुधर्मा का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम धम्मिल और माता का नाम भद्रिला था। अग्निवैश्यायन उनका गोत्र था।' ब्राह्मण सुधर्मा ने श्रमण दीक्षा ग्रहण कर गणधर का स्थान प्राप्त किया। जैन शासन में तीर्थकर के बाद सर्वोच्च पद गणधर का होता है । गणधर अतुल बल सम्पन्न एवं उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के धनी होते हैं । गणधर की रूप सम्पदा तीर्थङ्कर से किञ्चिन्यून एवं आहारक शरीर, चक्रवर्ती आदि अन्य सबसे विशिष्ट होती है । आचार्य सुधर्मा पचास वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। उन्हें तीस वर्ष तक भगवान् महावीर की सन्निधि प्राप्त हुई । बीर निर्वाण के बाद बारह वर्ष का छद्मस्थकाल और आठ वर्ष का केवलज्ञान का काल है। उनकी कुल आयु सौ वर्ष की थी। वर्तमान में उपलब्ध द्वादशाङ्गी आचार्य सुधर्मा की देन है। सुधर्मा का दूसरा नाम लोहार्य है। १. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९ : इह च फलभरो धर्मफलभरो गृह्यते, कुसुमानि ऋद्धयः, वनानि गच्छाः। २. मलयगिरीया वृत्ति, प. ४७ ३. नंदी चूणि, पृ. ६ : जीवादिपदत्थसरूवोलंभतो दिप्पंति । ४. वही, पृ. ६ : जुगप्पहाणो पुरिसो चूला। ५. (क) वही, पृ. ६ : एवं चरमतित्थगरस्स संघस्स य पणामे कते इमा अवसरप्पत्ता आवली भण्णति-सा तिविहा तित्थकर १ गणहर २ थेरावली ३ य । (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ४७ ६. नवसुत्ताणि, नंदी, गा. २३ से ४३ ७. नवसुत्ताणि, पज्जोसवणाकप्पो, सू. १८६ से २२२ ८. द्रष्टव्य, भूमिका। ९. आवश्यक नियुक्ति, गा. ६४७ से ६४९ १०. वही, गा. १०६२ ११. विविध तीर्थकल्प, पृ. ७६ १२. आवश्यक नियुक्ति, गा. ६५०,६५३,६५४,६५५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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